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अनुसन्धान-५०
सोधिवि धुंसु रंधंति पीसहिं दलहिं । पउंजि वे वारइ चुल्हि घर हू खलइं ॥४६।। जाणवि जीउ जे ईंधणं बालहिं । अट्ठमि चउदसिय-मुह ते पालहिं । जीवदया सारु जिण वयणु जे संभरइं । जयण पालंति नर नारि ते भव तरहिं ।।४७।। पक्ख चउमास संवच्छरे खामणा । सुगुरुपासंमि जिय करिय आलोयणा ।। करइ जो आउ-पज्जंत आराहणा । तासु परलोइ गइ होइ अइ-सोहणा ॥४८|| एम जो पालए पवर सावय-विही । अट्ठभव माहि सिवसोक्ख सो पाविही ॥ 'रासु पदमाणंदसूरि-सीसिहि इहो । तेर इगहत्तरइ रयउ ल(?) संगहो ॥४९।। जो पढइ जो सुणइ जो रमइ जिणहरो । सासणदेवि तउ तासु सामि धुकरो । जाम ससि सूरु महि मेरु नंदणवणं । ता जयउ तिहुयणे एहु जिणसासणं ॥५०॥
॥ इति श्रावकविधि रासः समाप्त मिति भद्रं ॥छ।।
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१. रासकी प्रथम गाथामें "भणइ गुणाकरसूरि गुरो" ऐसा पाठ है । ४९वीं गाथामें
"रासु पदमाणंदसूरि-सीसिहि इहो" ऐसा पाठ है । दोनोंका संकलन किये जाने पर पदमाणंदसूरि के शिष्य गुणाकरसूरि द्वारा रास रचित हो ऐसा प्रतीत होता है। सम्पादक महोदयने पद्मानन्दसूरि की रचना इसे बताई है । विज्ञ लोग निर्णय करें। अपभ्रंश की यह रचना काफी सम्मान की अपेक्षा रखती है । अपभ्रंश के अभ्यासु जन सम्मार्जन व शब्दकोश करेंगे ऐसी आशा है । -शी.
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