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निवेदन
परम्परा अने संशोधन - ए बे वच्चेनो तफावत संक्षेपमां समजवो होय तो ते आम समजी शकाय : परम्परा श्रद्धागम्य, आज्ञाग्राह्य बाबत छे, ज्यारे संशोधन ते बुद्धिगम्य पदार्थ छे. घणा लोको श्रद्धा अने बुद्धिने एकबीजानां विरोधी तत्त्वो तरीके ज जोतां होय छे. तेमना अभिप्राय प्रमाणे श्रद्धागम्य के श्रद्धेय बाबतने बुद्धिना मापियाथी मापवी न जोईए; बल्के तेम मापवी ते अपराध गणाय. श्रद्धागम्य के आज्ञाग्राह्य बाबतने, कशा ज विकल्प के विमर्श विना जेमनी तेम स्वीकारी ज लेवी पडे. तेमां कोई ननु नच न करी शकाय; करीए तो मोटो अनर्थ सर्जाई जाय.
भगवान महावीरदेवे कयुं छे ते आनी सामे मूकीए तो आ अभिप्राय जरा कठे तेवो जणाय. भगवाने दरेक बाबतने तेना हेतु, कारण, व्याकरण आदि सहित ज कही छे. सवाल ए थाय के जो कोई पण वातने श्रद्धाथी ज मानी लेवानी होय तो हेतु, कारण वगेरे दर्शाववानी जरूर ज क्यां रहे छे ?
श्रीहरिभद्राचार्ये पण 'युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः' एवं ज कडं छे. 'आज्ञा पण युक्तिथी के बुद्धिथी गम्य होय ते ज श्रद्धेय' एवो अर्थ आ उक्ति थकी काढी शकाय.
संशोधन ते आज्ञा, श्रद्धा तथा परम्परानुं विरोधी ज होय एम मानी लेवू ए पण, उपरोक्त सन्दर्भोना परिप्रेक्ष्यमां, वधु पडतुं न लागे ?
जैन तत्त्वचिन्तन नयवादने अनुसरे छे. एक ज बाबत, विचार के पदार्थने जुदा जुदा अनेक दृष्टिकोणथी - Angle थी जोई शकाय, विचारी के प्रमाणी शकाय. जैन आगमोना विवरणकारोए एक एक बाबतने अनेक अनेक नयोनी नजरथी मूलवी छे, वर्णवी छे; घणीवार तो एqये जोवा मळे के एक दृष्टिकोण बीजा दृष्टिकोणनो छेद उडाडतो होय, अने छतां ते अमान्य के अग्राह्य न होय. सन्तुलन करतां आवडे तो आ पद्धतिमां तत्त्व ज तत्त्व सांपडे, अने ते एकमेकथी तद्दन जुदुं होय तो पण विरोधी के खण्डनात्मक न लागे, अने
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