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सप्टेम्बर २००९
विहंगावलोकन (अंक४६-४७-४८ मुं) |
- उपा. भुवनचन्द्र
'अनुसन्धान'ना ४६मा अंकमां अप्रगट कृति लेखे एक ज संस्कृत रचना छपाई छे ज्यारे संशोधन लेखो ६ जेटला छे. संशोधनलेखो पण प्राचीन जैन साहित्य तथा संस्कृत-प्राकृतना अनुसन्धानकार्यनो ज एक भाग छे ए दृष्टिए 'अनु०'मां आवा लेखो हवे प्रकाशित थवा लाग्या छे ते आवकारपात्र ज छे, किन्तु अप्रसिद्ध नानी-मोटी संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश वगेरे भाषानी कृतिओ 'अनु०' द्वारा जे रीते प्रकाशमां आवे छे ते प्रवृत्ति गौण न बनी जाय ते जोवा सम्पादकश्रीने विनंती करवानुं मन थाय छे. लघुकृतिओ अप्रकाशित थाय एमां द्विविध लाभ छे : अप्रगट सामग्री प्रकाशमां आवे अने नवोदित सम्पादकोने सम्पादन-संशोधननी तालीम मळे.
_ 'अभयाभ्युदय महाकाव्य' काव्य अने कथा बन्नेना लक्षण धरावती रचना छे. एने 'खण्डकाव्य' पण कही शकाय तेम नथी, कारण के काव्यनो मोटो भाग चरित्रात्मक छे.
सम्पादकोए पर्याप्त विचारणा अने परिश्रम साथे कृतिनुं सम्पादन कर्यु छे. आ रचनानी ताडपत्रीय प्रतो छ पण आ सम्पादनमा तेमनो आधार लेवायो नथी. पाठ शुद्धप्राय छे. सर्ग ४, श्लोक. ८मां 'वदति स' ए जो मुद्रणदोष न होय तो कदाच वाचनभूल हशे. अहीं 'वदति स्म' पाठ होवो घटे.
"एक फूटफळ पत्र'मांथी मळेली शब्द सूचि रसप्रद छे. प्राकृत के देश्य शब्दोना संस्कृत पर्यायो आभासी शब्द-सादृश्यना आधारे घडी काढवानी एक प्रथा एक समये हती. व्यवहार माटे ए कार्यक्षम होवा छतां एमां भाषाना, ध्वनिना तथा अर्थविकासना नियमो सदंतर उपेक्षा पामता हता. प्रस्तुत सूचिगत शब्दोनी अर्थ अने व्युत्पत्तिनी दृष्टिए सुन्दर चर्चा सम्पादके करी छे. एमांना केटलाक शब्दो अंगे टिप्पणी
-- 'पडूचउं' 'प्रतिभाव्य' ना पर्याय तरीके बराबर छे परंतु 'प्रतिभाव'मांथी
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