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अनुसन्धान ४९
जैन परम्परा में नारद का व्यक्तित्व प्रमुखता से कृष्णकथासम्बन्धित ही है । यद्यपि अपने महाकाव्य में विमलसूरि ने नारद का यथासम्भव उपयोजन किया तथापि एक दो अपवाद छोडकर परवर्ती जैन रामकथा में नारद की व्यक्तिरेखा का इस प्रकार प्रचलन नहीं हुआ । इस बात से भी यह सिद्ध होता है कि रामायण के प्रति विमलसूरि 'काव्यदृष्टि से देखते थे, 'इतिहासदृष्टि' से नहीं । कथा को आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रकार विमलसूरि ने नारद के मिथक का उपयोग कर लिया है, वह वाड्मयीन दृष्टि से काफी सराहनीय है। वसुदेवहिण्डी में नारद के 'विविद रूप' : (१) देवनारद :
लगभग छठी शताब्दी के वसुदेवहिण्डी ग्रन्थ में प्रथमत: 'नारद' का उल्लेख व्यन्तरदेवों के उपप्रकार गन्धर्वदेवों में पाया जाता है । वे गायन से सम्बन्धित हैं तथा देवयोनि के अनुसार 'विकुवर्णा' भी करते हैं । इस देवस्वरूप नारद का जैनीकरण करके, उन्हें आगमानुरूप सुमधुर गीतगायन करनेवाले तथा जिनों के गुणवर्णन करनेवाले बताये हैं । ये नारद 'तुम्बरु' से सम्बन्धित है ।६१ (२) अहिंसावादी ब्राह्मण नारद :
वसुदेवहिण्डी में ही अहिंसावादी ब्राह्मण नारद के सम्बन्ध में कुछ वृत्तान्त कहे गये हैं। क्षीरकदम्ब गुरु का यह शिष्य नारद, गुरु की हिंसाप्रधान आज्ञा का, अहिंसक पद्धति से अन्वयार्थ देने की कोशिश करता है । "जहाँ कोई देखें नहीं, वहाँ 'छगल' याने अज मारो'' इस वाक्य का अर्थ नारद लगाते हैं कि इस पृथ्वीतल पर एक भी जगह ऐसी नहीं है, जहाँ कोई देखता नहीं । वनस्पतियों के सचेतन होने का यहाँ विशेष विचार किया है६२, जो जैन सिद्धान्त के अनुसार है।
नारद-पर्वतक और वसु की कथा, जो महाभारत के शान्तिपर्व में तथा विमलसूरि के 'पउमचरियं' में उद्धृत है, वही कथा वसुदेवहिण्डी में गद्यस्वरूप में प्रस्तुत है । 'अज' शब्द के दो अर्थ है -- एक छल छगल
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