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सप्टेम्बर २००९
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और पानी से होनेवाली शुद्धता के बजाय मनःशौच तथा सत्याचरण की शुद्धता का महत्त्व बताया है ।४५ जैन आचारशास्त्र में भावशुद्धि को अग्रिम महत्त्व दिया गया है, यह बात तो सुपरिचित ही है ।
ऋषिभाषित के 'नारद' को आदरणीय रूप से प्रस्तुत करनेवाला हरिभद्र भी नारद के बारे में दिखायी देनेवाली संभ्रमावस्था से नहीं छूटे, क्योंकि दशवैकालिकटीका में वे कहते हैं कि, 'कामकथा यथा नारदेन रुक्मिणीरूपं दृष्ट्वा वासुदेवेन कृता ।'४६ इसी टीका में द्रौपदी के अपहरण के प्रसंग में भी नारद की भूमिका का उल्लेख है।
यद्यपि जैन परम्परा में दोनों प्रकार के नारद चित्रित हैं तथापि ऋषिभाषित में शब्दाङ्कित नारद की पूरी कथा देकर, हरिभद्रने आदरणीय नारद के प्रति अपना झुकाव स्पष्ट किया है ।
हिन्दु पौराणिक परम्परा में भागवतपुराण, वायुपुराण, ब्रह्माण्डपुराण ९ और ब्रह्मवैवर्तपुराण' में नारदोत्पत्तिविषयक विविध कथाएँ दी गयी हैं । भागवतपुराण तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में नारद को दासीपुत्र भी कहा है । जैन साहित्य के किसी भी ग्रन्थ में नारद के दासीपुत्र होने का जिक्र कहीं भी नहीं किया है। नारद की उत्पत्तिविषयक कथा सिर्फ हरिभद्र ने ही दी है और उसको यज्ञदत्त और सोमयशा का पुत्र बताकर उनका ब्राह्मणत्व ही स्पष्ट किया है। हिन्दु पुराणों में अंकित नारद के निम्नजातीय होने की बात उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थकारों ने क्यों नहीं उठायी होगी ? इसका समाधान यह है कि जैन शास्त्र में जन्माधार जाति को कभी भी महत्त्व नहीं दिया जाता, 'आध्यात्मिक योग्यता' ही पूज्यताका आधार मानी गयी है । त्रिलोकप्रज्ञप्ति में 'अतिरुद्र' नारद :
श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में विशेष लक्षणीय पुरुषों की प्रत्येक उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी में पुनरावृत्त होनेवाली एक परम्परा उद्धृत की गयी है। यौवन्न महापुरुष अथवा तिरसठ शलाकापुरुषों की परम्परा तो सुपरिचित है लेकिन सातवीं शताब्दी के शौरसेनी भाषारचित त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ में रुद्र, नारद और कामदेवों की भी हर युग में नौ नौ संख्या बतायी हैं। त्रिलोप्रज्ञप्ति के सिवा अन्य कोई ग्रन्थ में इसका निर्देश नहीं है । त्रिलोकप्रज्ञप्ति के चतुर्थ
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