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________________ जून २००९ ७९ प्रमुख श्रेष्ठियों ने आचार्यश्री से निवेदन किया कि "महाराज यह क्या कर रहे हो? हमने आपके मन्तव्य को स्वीकार कर अपने समाज से विरोध लेकर अलग हुए हैं, ऐसी स्थिति में आप यदि मत बदलोगे तो हम उनके सामने कैसे सिर ऊँचा रखेंगे ?" ऐसा भक्त श्रावकों के मुख से सुनकर अपने मन्तव्य पर ही दृढ़ रहे और अपने विचारों को ही परिपुष्ट किया । तत्त्वं तु केवलीगम्यं । प्रति परिचय इस प्रति की साइज ११.२ x २०.३ से.मी. है। पत्र ७१, पंक्ति १० तथा प्रति पंक्ति अक्षर लगभग ३८ हैं । लेखन प्रशस्ति निम्न प्रकार है : |ग्रंथमान १५५१, इति निर्णयप्रभाकराभिधःसंदर्भः ॥ समाप्तोयः ।। श्रीरस्तु कल्याणं ॥ श्रीमत्बृहत्खरतरगच्छे श्रीजिनचंद्रसूरिसाखायां: ॥ श्रीमत् १०८श्री ।पांप्र। मुनिश्रीमद्देवविनयजीः ॥ तच्चरणारविंदमधुकर इवः । जवेरचंद्रेण लिपिकृतं दक्षिणप्रांत पूर्णाभिधनग्रात्पार्श्वभागे ग्रामीणतले ग्रामध्ये लिपीकृतं चतुर्मासचक्रेः ॥ संवत् १९३९ का मीती आश्विनशुक्ल नवम्यांतिथौ शुक्रवासरेः ।। पुण्यपवित्र भवतु ॥ श्रेयभवतुः ॥श्री।। इस ग्रन्थ में उद्धरण बहुत अधिक दिए गए हैं। प्राचीन हिन्दी भाषा में लिखा गया है । जहाँ-जहाँ राजस्थानी शब्दों का भी प्रयोग किया गया हैं। यह ग्रन्थ पठन एवं चिन्तनयोग्य है। आज के युग में भी यह ग्रन्थ प्रकाशन योग्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520548
Book TitleAnusandhan 2009 07 SrNo 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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