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________________ ७६ अनुसन्धान ४८ पद प्राप्त हुआ और विजयराजेन्द्रसूरि नामकरण हुआ । उसी वर्ष क्रियोद्धार किया । संवत् १९६३ पौष शुक्ला सप्तमी को आपका स्वर्गवास हुआ । सच्चारित्रनिष्ठ आचार्यों में गणना की जाती थी। अभिधानराजेन्द्रकोष इत्यादि आपकी प्रमुख रचनाएं हैं जो कि आज भी शोध छात्रों के लिए मार्गदर्शक का काम कर रही हैं। इन्हीं से त्रिस्तुतिक परम्परा विकसित हुई, मध्य भारत और राजस्थान में कई तीर्थों की स्थापना की । तपागच्छीय परम्परा में होते हुए भी इनकी परम्परा सौधर्म बृहद् तपागच्छीय परम्परा कहलाती है। प्रतिवादी-तपागच्छीय श्री मयासागरजी की परम्परा में गौतमसागरजी के शिष्य झवेरसागरजी थे । (इनके शिष्य श्री आनन्दसागरसूरि जो कि सागरजी के नाम से प्रसिद्ध थे ।) इनके बारे में अधिक जानकारी अन्यत्र उपलब्ध हो सकती है । ऐसा प्रतीत होता है कि वादी और प्रतिवादी अर्थात् विजयराजेन्द्रसूरि और झवेरसागरजी में पाँच विषयों के लेकर मतभेद उत्पन्न हुआ, चर्चा हुई और अन्त में निर्णायक के रूप में इन दोनों ने श्री बालचन्द्राचार्य और ऋद्धिसागरजी को स्वीकार किया । क्योंकि ये दोनों आगमों के ज्ञाता और मध्यस्थ वृत्ति के धारक थे । लिखित रूप में कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता है किन्तु उनके द्वारा विवादित पाँच प्रश्नों के उत्तर निर्णय के रूप में होने के कारण यह सम्भावना की गई है । रचना संवत् और स्थान निर्णय-प्रभाकर ग्रन्थ की रचना प्रशस्ति में लिखा है कि श्री जिनमुक्तिसूरि के विजयराज्य में वैशाख शुक्ल अष्टमी के दिन विक्रम संवत् १९३० में इस ग्रन्थ की रचना रत्नपुरी में की गई । जो कि इस निर्णय के लिए श्रीसंघ के आग्रह पर, दोनों को बुलाने पर रतलाम आए थे । ग्रन्थ की रचना उपाध्याय बालचन्द्र और संविग्न साधु ऋद्धिसागर ने मिलकर की है। श्रीमच्छ्रीजिनमुक्तिसूरिगणभृद्ववर्ति चञ्चद्गुणा स्फीत्युद्गीर्णयशा गणे खरतरे स्याद्वादनिष्णातधीः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520548
Book TitleAnusandhan 2009 07 SrNo 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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