SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ तुं बाजारैं जाइनैं रे तरकारी काई आण बेटी बाजारैं जई रे मोल लीयौ ते मच्छ । घरि आणी थाली विचै रे चीरणौ मांड्यो अच्छ सगुण० धन० ||१६|| मच्छ वनारतां वासणी रे थालीमैं पडी आय । अनुसन्धान ४७ हेम देखी मन हरखीयौ रे छांनी लीधी छिपाय सगुण० धन० ||१७|| भीति तर्णैहि ज आंतरें रे मा बैंठीथी माहि । सगुण० धन० ॥१९॥ सोवन खणकौ सांभली रे चित लेवा हूई चाहि सगुण० धन० ॥१८॥ मच्छ विदारतां माहिसुं रे स्युं निकल्यौ कहि साच । पुत्रीसुं अति भडकिनैं रे बोलैं माता वाच सुता कहैं माहरैं सिरै रे क्युं ौं झूठ कलंक । तब मा बेटी तर्णै रे दीधौ धाव निसंक भयसुं नौली खिर पडी रे माताइ लीधी तेह | दोइ भाई म्हे ओलखी रे तेहज नौली एह सगुण० धन० ॥२१॥ सगुण० धन० ॥२०॥ दुख कारण धन देखिने रे छोडी सहु घरबार । चोखै चित चारित लीयौ रे संवेग मैं धरि सार सगुण० धन० ||२२|| सिव मुनि अभयकुमार सुं रे कहैं इम मीठें साद । भयकारण धनवारता रे आई मोनें याद सुगुण० धन० ॥२३॥ इति वा० कांन्हजीकृतायां चतुष्पदिकायां शिवराजमुनीश्वरकथानकं प्रथमं समाप्तम् ॥ दोहा अथ सुव्रतसाधुरभयकुमारस्य पुरतः स्वप्रवृत्तिं ब्रवीति । बीजैं पहुर गुरां कनैं सुव्रत आयौ सीस । हार देखिनैं हलफल्यौ ए स्युं कारण ईस ॥१॥ पूठौ थानक पैंसतां महाभयं कहैं वाणि । अभय कहैं अणगारजी किसौ महाभय जाण ॥२॥ साधु कहैं मुझ घरतणी चीता आई वात । व्रत लोधौ जिण वासतें ते सुणिज्यो अवदात ||३|| Jain Education International सगुण० धन० ॥१५॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520547
Book TitleAnusandhan 2009 00 SrNo 47
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy