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तुं बाजारैं जाइनैं रे तरकारी काई आण बेटी बाजारैं जई रे मोल लीयौ ते मच्छ । घरि आणी थाली विचै रे चीरणौ मांड्यो अच्छ सगुण० धन० ||१६|| मच्छ वनारतां वासणी रे थालीमैं पडी आय ।
अनुसन्धान ४७
हेम देखी मन हरखीयौ रे छांनी लीधी छिपाय सगुण० धन० ||१७|| भीति तर्णैहि ज आंतरें रे मा बैंठीथी माहि ।
सगुण० धन० ॥१९॥
सोवन खणकौ सांभली रे चित लेवा हूई चाहि सगुण० धन० ॥१८॥ मच्छ विदारतां माहिसुं रे स्युं निकल्यौ कहि साच । पुत्रीसुं अति भडकिनैं रे बोलैं माता वाच सुता कहैं माहरैं सिरै रे क्युं ौं झूठ कलंक । तब मा बेटी तर्णै रे दीधौ धाव निसंक भयसुं नौली खिर पडी रे माताइ लीधी तेह | दोइ भाई म्हे ओलखी रे तेहज नौली एह सगुण० धन० ॥२१॥
सगुण० धन० ॥२०॥
दुख कारण धन देखिने रे छोडी सहु घरबार । चोखै चित चारित लीयौ रे संवेग मैं धरि सार सगुण० धन० ||२२|| सिव मुनि अभयकुमार सुं रे कहैं इम मीठें साद ।
भयकारण धनवारता रे आई मोनें याद
सुगुण० धन० ॥२३॥ इति वा० कांन्हजीकृतायां चतुष्पदिकायां शिवराजमुनीश्वरकथानकं प्रथमं
समाप्तम् ॥
दोहा
अथ सुव्रतसाधुरभयकुमारस्य पुरतः स्वप्रवृत्तिं ब्रवीति ।
बीजैं पहुर गुरां कनैं सुव्रत आयौ सीस ।
हार देखिनैं हलफल्यौ ए स्युं कारण ईस ॥१॥
पूठौ थानक पैंसतां महाभयं कहैं वाणि । अभय कहैं अणगारजी किसौ महाभय जाण ॥२॥ साधु कहैं मुझ घरतणी चीता आई वात । व्रत लोधौ जिण वासतें ते सुणिज्यो अवदात ||३||
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सगुण० धन० ॥१५॥
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