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________________ मार्च २००९ २३ को ध्यान नहीं है । ६० वर्ष के साहित्यिक सेवा कार्य में रहते यह लेखन प्रशस्ति की प्रतिलिपि की थी । किन्तु मुझे आज स्मरण नहीं है कि यह प्रति किस भण्डार की और कहाँ पर थी । अन्वेषणीय है । जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह (सम्पादक मुनि जिनविजयजी), कैटलॉग ऑफ संस्कृत और प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट जैसलमेर कलेक्शन (सम्पादक पुण्यविजयजी) में इसका उल्लेख नहीं है। ॥ ० ॥ अर्हम् । सुपर्ववेलिवधिष्णु - विश्ववंशशिरोमणिः । श्रीमद्गुरुगिरिस्थाणु - ीयादूकेशवंशराट् ॥१॥ रांकाकुले श्रेष्ठिधुराधुरन्धरो - ज्जोषदे ? श्रीजिनदत्तसूरिभिः । सपादलक्षैस्मदनैस्समन्वित, ऊकेशपुर्यां सुकृते नियोजितः ॥२॥ तदन्वये श्रेष्ठि गजू प्रसिद्धः, पुत्रस्तदीयो गणदे समृद्धः । श्रीधांधलाख्योपि ततो मुमुक्षुः श्रीपद्मकीर्त्या प्रवरप्रसिद्धः ॥३॥ आंबा-जींदा-मूलराजा सत् पितृव्यसहोदराः । अर्हत्प्रतिष्ठामुच्चाया-मत्युन्नतिमकारयन् ॥४॥ शत्रुञ्जयादौ फुरमाण शक्ते-नि:स्वानयुक्षड्विचतुर्दशाब्दे (१४३६)। यात्रा समं श्रीजिनराजसूरे-ष्टङ्कार्धलक्षव्ययतो व्यधुर्ये ॥५॥ धांधलिमम्मणस्तस्य, भार्या श्रीः श्रीरिवापरा । जयसिंह-नृसिंहाख्यौ, क्षितौ ख्यातौ सुतौ पुनः ।।९।। तथा आस्तां मोहण जन्मात्सै, श्रेष्ठि कीहट-धन्यको । शत्रुञ्जयादियात्रां या-वकाष्टी सङ्घपत्वत: ॥७॥ ताभ्यां बन्धुभ्यां सह जेसलमेरौ विधापिता याभ्याम् । जैनी महाप्रतिष्ठा त्रिसप्तभुवनैमिते (१४७३) वर्षे ||८|| अभवज्जयसिंहस्य, पत्नीयुगलमुत्तमम् । सिरू सरस्वतीसंज्ञ, सरस्वत्याः सुतोत्तमौ ॥९॥ रूपा-थिल्लाभिधो रूप-प्रिया मेलू-चिपीद्वयम् । पुत्रो नाथूः सुतो त्वस्य, राजाख्य-समराभिधौ ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520547
Book TitleAnusandhan 2009 00 SrNo 47
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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