________________
४६
अनुसन्धान ४६
का उसके लिए निषेध करना तर्कसंगत लगता है। श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र में शुक, सारिका, कुक्कुट, मयूर, श्वान आदि का घर में पोषण न करने का विधान इसी कर्मादान के अन्तर्गत किया है। आज भी कुक्कुटपालन, मत्स्यपालन, अश्वपालन आदि व्यवसाय सामान्यतः जैनियों द्वारा नहीं किये जाते तथा घर में भी तोता, बिल्ली, कुत्ता आदि पालने की प्रथा कम है । तिर्यंचयोनिक जीवों को बन्धन में न डालने का संकेत जो इस कर्मादान में निहित है उसीके प्रभाव से जैन आचार में इस प्रकार
के तिर्यंचों का पालन नहीं अपनाया होगा । दिगम्बर ग्रन्थों में पन्द्रह कर्मादानों की परिगणना का अभाव :
अर्धमागधी या जैन माहाराष्ट्री भाषा में लिखे हुए श्वेताम्बर ग्रन्थों की तुलना से दिगम्बर ग्रन्थों में श्रावकाचार के ऊपर ज्यादा मात्रा में ग्रन्थ उपलब्ध हैं । वसुनन्दि श्रावकाचार का अपवाद छोडकर प्रायः सभी ग्रन्थ संस्कृत में हैं । रत्नकरण्डश्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, यशस्तिलकचम्पू, अमितगतिश्रावकाचार, सागारधर्मामृत, धर्मसंग्रह, श्रावकाचार, लाटीसंहिता, आदि ग्रन्थो के निरीक्षण के बाद यह तथ्य सामने आया की उनमें पन्द्रह कर्मादानों या निषिद्ध व्यवसायों की गिनती कहीं भी प्रस्तुत नहीं की गयी है । सागारधर्मामृत ग्रन्थ में पन्द्रह कर्मादानविषयक उल्लेख निम्न प्रकार से है
इति केचिन्न तच्चारु लोके सावद्यकर्मणाम् ।
अगण्यत्वात्प्रणेयं वा तदप्यतिजडान् प्रति ॥१२ लाटीसंहिता में अहिंसा अणुव्रतधारक श्रावकों को कौनसे व्यवसाय टालने चाहिए इसका दिग्दर्शन किया है। फिर भी श्वेताम्बर साहित्य की तरह पन्द्रह कर्मादानों की गणना नहीं की है ।१३
दिगम्बर श्रावकाचार में अहिंसा अणव्रत के पालन के लिए हिंसाअहिंसा का विचार, आरम्भी हिंसा, उद्योगी हिंसा, संकल्पी हिंसा और विरोधी हिंसा इस रूप में किया गया है । उपजीविका के लिए गृहस्थ को उद्योग, व्यवसाय अपनाने होते हैं । खेती, दुकान, मकान आदि में हिंसा तो है ही, लेकिन जीवनावश्यक हिंसा को छोडकर बिना प्रयोजन हिंसा का त्याग गृहस्थ के लिए आवश्यक माना है ।१४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org