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अनुसन्धान ४५
दे छ :
लोगस्स सार धम्मो धम्मं पि य नाणसारियं बिंति । नाणं संजमसारं संजमसारं च निव्वाणं ॥२४५।।
(आचा. अध्य. ५, उ.१ नियुक्ति) अर्थात्, "लोकनो सार 'धर्म' छे; धर्मनो सार वळी 'ज्ञान' छे; ज्ञाननो सार छ 'संयम'; अने संयमनो सार छे 'निर्वाण' ।"
मारी अक कल्पना छे के उपाध्यायजीने पोतानी आ उत्कृष्ट रचनानुं नाम 'ज्ञानसार' राखवानी प्रेरणा आ लोकसार अध्ययन अने तेना परनी आ बे नियुक्ति गाथाओ उपरथी ज सांपडी होवी जोईओ. अने आ गाथामां पण 'नाणसारियं' पद तो छ ज ! आ कल्पना निराधार भले होय, पण ओ रमणीय पण जेटली ज छे, अनो इन्कार कोई नहि करे.
वस्तुतः लोकसार अध्ययन तेमज आ गाथाओनो नशो उपाध्यायजी ना मानस पर केटली हदे छवायो हशे, के अध्यात्मसार प्रकरणमां पण तेमणे आ सारनो उल्लेख को छ :
सम्यक्त्वमौनयोः सूत्रे, गतप्रत्यागते यतः ।।
नियमो दर्शितस्तस्मात्, सारं सम्यक्त्वमेव हि ॥ (२/६/१९)
अरे ! ज्ञानाष्टकनो आ श्लोक जोईओ तो पण आ वातनो आपणने अंदाज अवश्य आवे :
निर्वाणपदमप्येकं भाव्य ते यन्मुहुर्मुहुः ।।
तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं निर्बन्धो नास्ति भूयसा ॥ (५/२)
सार अटलो ज के सार नाम धरावती सर्वप्रथम रचना ते सर्वज्ञ-कथित लोकसार अध्ययन छे, ओम कही शकाय.
आ पछी तो श्रीकुन्दकुन्दाचार्यना समयसार, नियमसार, प्रवचनसार वगेरे ग्रन्थो आव्या, तो बीजा पण योगसार, तत्त्वसार जेवा प्राचीन तात्त्विक ग्रन्थो आव्या, तो उपदेशसार जेवा सामान्य औपदेशिक ग्रन्थो पण जोवा मळे ज छे. आ ज श्रेणीमा उपाध्यायजीना अध्यात्मसार तथा ज्ञानसार जेवा ग्रन्थो पण आवे.
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