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________________ अनुसन्धान ४२ जैन दर्शन के अनुसार धर्म और अधर्म द्रव्य इन दोनों शब्दों का व्यवहार में प्रयुक्त 'धर्म' और 'अधर्म' शब्द से सम्बन्ध नहीं है । ये सम्पूर्णतः पारिभाषिक शब्द है । 'द्रव्यसंग्रह' इस जैन शौरसेनी ग्रन्थ में नेमिचन्द्र कहते हैं - गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी । तोयं जह मच्छाणं अच्छंताणेव सो णेई ॥१३ जिस प्रकार मछली के गमन के लिए पानी सहायक होता है उसी प्रकार जीव और पुद्गल जब गतिशील होते हैं तो 'धर्मद्रव्य' सहायक होता ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी । छाया जह पहियाणं गच्छंताणेव सो धरई ॥१४ जिस प्रकार एक पथिक के लिए वृक्ष की छाया ठहरने में सहायक होती है उसी प्रकार स्थितिशील पुद्गल और जीवों के स्थिति के लिए 'अधर्मद्रव्य' सहकारी होता है। धर्म और अधर्म ये संकल्पनाएँ जैन दर्शन की आकाश संकल्पना से जुडी हुई है। धर्म और अधर्म ये दो तत्त्व समग्र आकाश में नहीं रहते वे आकाश के एक परिमित भाग में स्थित है उसे 'लोककाश' कहते हैं ।१५ इस भाग के बाहर चारों ओर आकाश फैला हुआ है उसे 'अलोकाकाश' कहते हैं । जहा धर्म-अधर्म द्रव्यों का संबंध न हो वह 'अलोक' और जहाँ तक पंच अत्थिकाया पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए... पोग्गलत्थिकाए । समवायांग ५.८ ते पुणु धम्माधम्मागासा य अरूविणो य तह कालो । खंधा देस पदेसा अणुत्ति विय पोग्गला रूवी ॥ मूलाचार २३२ (५);७१५(८) धम्माधम्मागासाणि पोग्गला कालदव्व जीवे य । आणाए सद्दहंतो समत्ताराहओ भणिदो ॥ भगवती आराधना ३५ १३. द्रव्यसंग्रह - १७ १४. द्रव्यसंग्रह- १८ १५. धम्मो अधम्मो आगास, कालो पुग्गल जंतवो । एस लोगो त्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥ उत्तराध्ययनसूत्र २८.७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520542
Book TitleAnusandhan 2007 12 SrNo 42
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages88
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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