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मूल सम्पादनना समये अप्राप्त एवां मबलख साधनो आजे लभ्य छे, तो पण तेनो उपयोग थतो नथी; करवानी फुरसद ज नथी; ते जूना प्रकाशनने एकवार वांचनमां लईने तेमां रही गयेल क्षतिओने शक्य दूर करवानुं के तेमां ज मूकाएला शुद्धिपत्रकने सहारे ते ग्रन्थगत भूलोने सुधारी लेवानुं पण ते लोकोने सूझतुं नथी; अने 'जे जेम छे तेम' छपावी देवामां आवे छे, ते अभ्यासीओने कठे तेवी बाबत छे.
छतां, आ बाबतने क्षम्य गणी शकाय : जो ते नव-सम्पादको जे ते ग्रन्थना आवरण (Title) पर, अंदरना आवरण पर, सम्पादक तरीके पोतानां नाम-ठाम न छपावता होय तो, अने मूळ सम्पादकोनां ज नाम राखी मूकता होय तो. स्थिति जरा ऊलटी छे. संघना नाणां अने प्रेसवाळानी महेनत - आ बेने बाद करतां पोता- कशुं ज कर्तृत्व न होवा छतां आ लोको सम्पादक वगेरे तरीके पोतानां नामोने मुख्य राखे छे, अने दिव्यकृपाओ, प्रेरणा, सहायको - आ बधांनां नामादि उपरांत मूळ सम्पादकादिनां नामादि राखे छे. अमुक वखते तो तेओ पोतानी तसवीरो (Photo) पण मूके छे अने सम्पादक तरीके 'समर्पण' पण आलेखे छे ! सिंघी ग्रन्थमालाना ग्रन्थो तेमज त्रिषष्टिशलाकाचरित, सिद्धहेम लघुवृत्ति वगेरे सेंकडो ग्रन्थोनां आ प्रकारनां पुनःमुद्रण जोवा मळे छे. साहित्यसेवा, श्रुतसेवा, लोकोपकार आ बधुं आमां हशे ज, पण तेना करतां वधु लक्ष्य, विना प्रयासे, नाम-कमाणी, होय तेम छाप अवश्य पडे छे.
आनी सामे जापानथी पुनः प्रकाशित, गुजरात विद्यापीठना 'संमतितर्कप्रकरणम्'नो दाखलो टांकवो जोईए. १९८४मां RINSEN Book Co. द्वारा मुद्रित ए ग्रन्थमा प्रकाशक संस्थानुं नाम अने जापनीस लिपिमां ग्रन्थ-नाम सिवाय कशुं ज नूतन उमेरण नथी. बधुं ज मूळ आवृत्तिनुं यथावत् राखवामां आवेल छे. संयोजक, प्रेरक, पुनःसम्पादक, द्रव्यसहायक, दिव्य आशिष, आशीर्वाद, फोटोग्राफ इत्यादि पैकी एक पण उमेरण आ प्रकाशनमां जोवा नथी मळतुं.
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