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________________ October-2007 ४७ भक्त भीलों ने अपने बल और सैन्य के साथ इसमें भाग लिया, भाऊ सदाशिव के घाव लगा और वह भाग गया तथा भीलों के सहयोग से केसरियानाथ कि जीत हुई । धुलेवानाथ, ऋषभदेव केसर से गरकाव रहते हैं इसीलिए केसरियानाथ कहलाते हैं । पश्चात् कवि ने कलियुग में भी ऋषभदेव की अत्यन्त भक्तिपूर्ण स्तवना की है। जोधपुर निवासी मरुधररत्न आशुकवि दाधीच पण्डित नित्यानन्दजी शास्त्री ने विक्रम संवत् १९६७ में पुण्यचरित नामक महाकाव्य संस्कृत भाषा में १८ सर्गों में लिखा है । पुण्यचरित वस्तुतः प्रवत्तिनी पुण्यश्रीजी का जन्म से लेकर १९६७ तक की घटनाओं का सविस्तर वर्णन है । किसी जैन साध्वी पर लिखा गया संस्कृत में यह प्रथम महाकाव्य है। (पुण्यश्री परिचय - जन्म १९१५ गिरासर गाँव, माता-पिता नाम - कुन्दन देवी-जीतमलजी पारख, जन्म नाम - पन्ना कुमारी, दीक्षा - १९३१, गुरु - लक्ष्मीश्रीजी, दीक्षा नाम - पुण्यश्री, स्वर्गवास - १९७६ जयपुर ।) इस काव्य के सर्ग ११ श्लोक ७ में लिखा है कि संवत् १९५८ में प्रवत्तिनी साध्वी पुण्यश्रीजी से निवेदन किया गया कि आप सिद्धाचल तीर्थयात्रा के संघ में चलें, किन्तु उन्होंने यह कहकर अस्वीकार किया कि केसरियानाथ तीर्थ की यात्रा करने मुझे जाना है इसीलिए मैं नहीं चल सकती । श्लोक १३ से १९ तक में लिखा है कि १८ साध्वियों एवं संघ के साथ पुण्यश्रीजी चैत्र सुदी ९, १९५९ के दिन केसरियाजी पधारी और भक्तिपूर्वक केसरियानाथ भगवान कि स्तुति की । श्रीमज्जिनकृपाचन्द्रसूरीश्वरचरित्रम्, कर्ता - जयसागरसूरि, रचना संवत् - १९९४ पालिताणा, यह संस्कृत का महाकाव्य ५ सर्गात्मक है । प्रकाशन सन् - २००४ (श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि - जन्म १९१३ चौमु गाँव, माता-पिता नाम - अमरादेवी-मेघराजजी बाफना, जन्म नाम - कृपाचन्द्र, यति दीक्षा - १९२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520541
Book TitleAnusandhan 2007 10 SrNo 41
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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