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________________ October-2007 'स्याद्वादकलिका' नी रचना करवानो मुख्य आशय प्रगट करतां कर्ता कृतिना छेल्ला - ३९मा पद्यमां लखे छे : २५ “द्रव्यषट्केऽप्यनेकान्त- प्रकाशाय विपश्चिताम् । प्रयोगान् दर्शयामास सूरि श्रीराजशेखरः ॥" अर्थात् विविध दर्शनोने सम्मत छ ( अथवा ओछां - वधतां) द्रव्योमां पण अनेकान्तवाद छे ज, ते वात विद्वानोने समजाववा माटे मारो आ प्रयास छे. जोके मारी कल्पना एवी छे के अहीं 'द्रव्यषट्के' ने बदले 'दृष्टिषट्के' पाठ होवो घटे. अर्थात् छए दृष्टि - दर्शनमां 'अनेकान्त 'नो प्रकाश प्रसराववानी आ मथामण छे, एम स्पष्ट थई जशे . हवे आपणे छ अथवा सर्व मतोमां स्याद्वाद केवी रीते संभवे छे, ते स्याद्वादकलिकाना टेकेटेके जोईए : श्रीकण्ठ (ईश्वर) जो कूटस्थनित्य होय तो तेमां सिसृक्षा (सर्जनेच्छा) अने संजिहीर्षा (संहारेच्छा ) - एम बे विरोधी इच्छाओ कई रीते संभवे ? अर्थात् जो ईश्वरमां बे विरुद्ध इच्छाओ संभवती होय तो ते ज 'स्याद्वाद' छे. (श्लोक. २) ३ गुणात्मक, ३ वेदात्मक, पृथ्वी वगेरे ८ गुणात्मक महेश्वर होय, अने ते एक ज होय, तो ते स्याद्वाद विना न बने. (३). विष्णु नित्य एकरूपी होय, छतां तेना दश विभिन्न अवतारो होय अने तेमां दरेकमां तेमना वर्ण, शरीर, कर्म नोखां होय तो ते स्याद्वाद विना केम बनी शके ? (४) शाक्तो शक्तिनां विभिन्न नामो, अवस्थाभेदे स्वीकारे, तो ते पर्यायपरिवर्तन विना शक्य नथी. ( ५ ). बौद्धमते ज्ञान निरन्वयनाश पामे छे ते छतां जातिस्मरण थाय ज छे, ते स्याद्वादनो ज स्वीकार छे (६-७) संसारमां भमता एक ज जीवनी सुखी - दुःखी के मनुष्य- देवादिरूप विभिन्न पर्यायो; परमाणुओमां गति स्थिति तथा भिन्न भिन्न वर्णादि धर्मो; एक ज भासता पुद्गलस्कन्धोमां वर्तती वर्णादिनी विविधता, आ बधुं अनेकान्तने स्वीकार्या विना केम संभवे ? (८-९) शब्द-पदार्थमां पण तार-तारतर वगेरे भेदो स्याद्वादना ज साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520541
Book TitleAnusandhan 2007 10 SrNo 41
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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