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________________ अनुसन्धान-४० वैदिकोंने हमेशा उल्हास, उमंग, आरोग्य और समृद्ध मानवी जीवन को केन्द्रस्थान में रखकर सारी शास्त्रशाखाओं का निर्माण किया । वनस्पतिशास्त्र का भी सूक्ष्मता से विचार किया । उससे निष्पन्न होने वाली आयुर्वेद तथा वननिर्माण, उद्याननिर्माण इन शास्त्र तथा कलाओं की भी वृद्धि की । उन्होंने वृक्षों को पंचेन्द्रिय कहा, लेकिन अहिंसा की दृष्टि रखते हुये उनको दैनंदिन व्यवहार से दूर नहीं किया बल्कि वनस्पति का यथोचित इस्तेमाल ही किया। दैनंदिन व्यावहारिक जीवन में मनुष्य को महत्त्वपूर्ण और वनस्पति को निम्नस्तरीय मानकर आयुर्वर्धन तथा रोगनिवारण के लिए उनका खूब उपयोग किया । ये सब करे हुये वृक्षों को पीडा देने की भावना उनमें भी नहीं थी। बल्कि अनेक वृक्षों की ओर पूजनीयता की दृष्टि को देखकर उनका सम्बन्ध अनेक व्रतों से भी स्थापित किया । वृक्ष के फल-फूल-पत्ते तोडने में उनके मन में हिंसा की तनिक भी भावना नहीं थी । बल्कि 'पत्रं पुष्पं फलं तोयं' इस रूप में ईश्वर को अर्पण करने की भी बुद्धि थी । जैन (निर्ग्रन्थ परम्परा) और वैदिक परम्परा इन दोनों के मूलाधार जीवनदृष्टि और तत्त्वज्ञान में इतना मौलिक भेद है कि कोई भी सृष्ट वस्तु की तरफ देखने का उनका परिप्रेक्ष्य अलग-अलग ही होता है । जैन परिभाषा में कहें तो वैदिक परम्परा वनस्पति की ओर व्यवहारनय से देखते हैं तो जैन निश्चयनय देखते हैं । वनस्पति के बारे में वैदिकों का वर्तन मानवकेन्द्री है तो जैनियों का मानवतावादी है। विज्ञान सन्दर्भ ग्रन्थ सूचि (१) Champion, Harry G. and Seth S. K. - A revised survey of forest types of India. (2) P.S. Verma, K. K. Agarwal-Principles of Ecology - 1992. (3) M. C. Das - Fundamentals of Ecology. (4) Taxonomy of Augisperms - V. N. Naik. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520540
Book TitleAnusandhan 2007 07 SrNo 40
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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