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अनुसन्धान- ४०
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में ग्रहण करने का उल्लेख है । मतलब यह हुआ कि बौद्ध परम्परा में उञ्छ के वैदिक तथा जैन दोनों अर्थ समानता से ग्रहण किये हैं । बौद्ध भिक्षु वनों से कन्द-मूल, फल ग्रहण करते थे तथा विकल्प से घरों से पकी हुई रसोई का भी स्वीकार करते थे ।
उपसंहार
वैदिक (संस्कृत) तथा प्राकृत (जैन) ग्रन्थों में पाये गये उञ्छ सम्बन्धी सन्दर्भों का अवलोकन करके हम निम्नलिखित साम्य भेदात्मक उपसंहार तक पहुँचते हैं ।
साम्य संकेत :
दोनों परम्पराओं में ‘उञ्छ' इस धातु का 'इकट्ठा करना' (to glean, to collect, to gather) इतना ही मूलगामी अर्थ है । चान्द्रव्याकरण में तथा जैन महाराष्ट्री कथाकोश प्रकरण में इस मूलगामी अर्थ से इस धातु का प्रयोग पाया जाता है ।
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यह इकट्ठा करने की या चुनने की क्रिया अलग-अलग स्थान से अल्पमात्रा में ग्रहण करने का संकेत देती है । वे धान्य के कण हो या भिक्षा हो अलग-अलग स्थानों से अल्पमात्रा में ग्रहण की जाती है । अल्पग्रहण की मात्रा का सूचन करनेवाली उपमा भी दोनों प्राय: समान है । जैसे कि प्रमाण के लिए कुन्ताग्र या व्रणलेप तथा प्रवृत्ति की सूचक कबूतर या मधुकर ।
वैदिक परंम्परा का तापस तथा गृहस्थ खुद जाकर उञ्छ द्रव्य लाता है, उसी प्रकार जैन साधु भी स्वयं जाकर गृहस्थ से उच्छ लाता है ।
* उञ्छवृत्ति का एक बार स्वीकार किया तो दोनों परम्परानुसार उसका
पालन आजीवन करना पडता है ।
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उञ्छ (भिक्षा) अगर प्राप्त नहीं हुई तो दोनों उस दिन अनशन ही करते हैं ।
भेदसंकेत :
* यहाँ प्रयुक्त उञ्छ शब्द वैदिकों की उच्छवृत्ति का निदर्शक है तथा जैन
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