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________________ अनुसन्धान-४० में 'उञ्छ' शब्द का प्रयोग हुआ है और किस अर्थ में हुआ है तथा व्याख्या, टीका आदि में उनका स्पष्टीकरण किस तरह दिया गया है यह प्रथम देखेंगे। आचारांग अंग आगम के दूसरे श्रुतस्कन्ध में 'उञ्छ' शब्द का प्रयोग केवल भिक्षा से सम्बन्धित न होकर भिक्षा के साथ-साथ छादन, लयन, संथार, द्वार, पिधान और पिण्डपात इनसे जुडा हुआ है । इधर केवल यह अर्थ निहित है कि उपर्युक्त सब चीजें साधु प्रायोग्य और प्रासुक होना आवश्यक है । टीकाकार अभयदेव ने कहा है कि - 'उञ्छं इति छादनाद्युत्तरगुणदोषरहित:'३९ सूत्रकृतांग के पहले श्रुतस्कन्ध में 'उञ्छ' शब्द का अर्थ 'बयालीस दोषों से रहित आहार ग्रहण करना' ऐसा दिया है ।४० शीलाङ्काचार्य ने सूत्रकृतांग १.७.२७ की वृत्ति में 'अज्ञातपिण्ड' का अर्थ अन्तप्रान्त (बासी) तथा पूर्वापर अपरिचितों का पिण्ड, इस प्रकार का स्पष्टीकरण किया है । सूत्रकृतांग की चूर्णि में 'उञ्छ' के द्रव्यउञ्छ (नीरस पदार्थ) और भावउञ्छ (अज्ञात चर्या) ऐसे दो भेद किये हैं ।४१ वृत्तिकार ने इसका अर्थभिक्षा से प्राप्त वस्तु ऐसा किया है । स्थानांगसूत्र में उञ्छजीविकासम्पन्न और जैन सिद्धान्तों के प्रज्ञापक साधु का निर्देश है ।४२ प्रश्नव्याकरण के संवरद्वार के पहले अध्ययन में अहिंसा एक पञ्चभावना पद के अन्तर्गत आये हुए ‘आहारएसणाए सुद्धं उञ्छं गवेसियव्वं'४३ इस पद से यह कहा है कि साधु शुद्ध, निर्दोष तथा अल्पप्रमाण में आहार की गवेषणा करे । प्रश्नव्याकरण के टीकाकार ने उञ्छगवेषणा शब्द पर विशेष प्रकाश डाला है । कहा है कि, 'उञ्छो गवेषणीय इति सम्बन्धः, किमर्थमत आह पृथिव्युदकाग्निमारुततरुगणत्रसस्थावरसर्वभूतेषु विषये या संयमदया-संयमात्मिका ३९. आचारांग टीका ३६८ब.१२ ४०. सूत्रकृतांग-१.२.३.१४; सूत्रकृतांग टीका - ७४ब.११ ४१. सूत्रकृतांग चूणि - पृ. ७४ ४२. स्थानांग-४.५२८ ४३. प्रश्नव्याकरण टीका - ६.२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520540
Book TitleAnusandhan 2007 07 SrNo 40
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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