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________________ 60 अनुसन्धान ३६ ___ उपरांत, 'संशोधक महात्माओना उद्गारो' छाप्या छे तेमां पण घणी अतिशयोक्ति थती जणाय छे. प्रशंसात्मक उद्गारो वैयक्तिक पत्रव्यवहारमा लखाय तेनी ना पाडी न शकाय; पण लखनारा विद्वान होय तो विवेकभान न चूके तेटली तो अपेक्षा राखी शकाय; अने छतां कोईए कांई लखी नाख्यु तो ते तेवू ने तेवू छापी मारवं, तेमां औचित्य तो न ज गणाय. २. परमपददायी आनन्दघन पदरेह. १-२. चिन्तक : खीमजीभाई, संस्करणः पं. मुक्तिदर्शनविजयगणि; प्र. अन्धेरी गुजराती जैन संघ, मुम्बई, ई. २००६, सं. २०६२. योगीराज आनन्दघनजीकृत ११० पदो उपर गुजराती भाषामां विवेचननो आ ग्रन्थ बे भागोमां वहेंचायेलो छे. अध्यात्मनी के तत्त्वबोधनी दृष्टिए तैयार थयेल आ ग्रन्थ होई संशोधनक्षेत्र माटे खास प्रस्तुत न गणाय. छतां प्रथम नजरे अवलोकन करतां एक-बे बाबतो नजरे पडी छे ते अत्रे नोंधवी जरूरी लागे छे. (१) भाग १ मां पृ. ३५३ उपर ४९ मा पदना विवेचनमां बीजी कडीनुं विवेचन जरा विचित्र थयुं जणायु. ए कडीमां 'सेन' पद छे तेनो अर्थ 'सहेवू' एवो करवामां आव्यो छे, जे तद्दन खोटो अर्थ छे, अने तेने कारणे आखी कडीनुं अर्थघटन खोटुं थयुं छे. खोटुं तो कई हदे ? विवेचनकारे (पृ. ३५४) आनन्दघन उपर तान्त्रिको वगेरे द्वारा मारणादि प्रयोगो अजमावी रह्या होवानी कल्पना, आ कडीना पोताने बेठेला अर्थना आधारे, करी छे; अने ते माटेनी व्यथा योगीराजे आ कडीमां व्यक्त कर्यानी कल्पना पण तेमणे करी नाखी छे. अध्यात्मनी प्रीति होय तो आवां पदो निरन्तर गाई जरूर शकाय; वागोळी पण शकाय; पण तेना उपर विवेचन लखवानुं साहस करवू ते तो घणी सज्जता मागी ले छे. सांभळ्यु छे के मस्तयोगी ज्ञानसारजीए दायकाओ सुधी आनन्दघननां स्तवनो पर चिन्तन कर्या कर्यु, त्यारे छेक पाछली वये टबो के अर्थ लखवा माटे कलम उपाडी हती - तेय डरतां हृदये - रखे क्यांक योगीराजना भावोने अन्याय थई जाय ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520536
Book TitleAnusandhan 2006 06 SrNo 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages70
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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