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________________ June-2006 35 आचार्य प्रवर स्वर्गीय श्री विजयकलापूर्णसूरिजी महाराज ने आनन्दघनजी के मेड़ता स्थित उपाश्रय का जीर्णोद्धार करवाकर दर्शनीय गुरु मन्दिर बनवा कर भक्तों के लिए अनुपम कार्य किया है । C/o. प्राकृत भारती १३-A. मेन गुरुनानकपथ मालवीय नगर जयपुर-३०२०१७ लेता हता. पोते दीक्षा तथा वयमां वडील अने आनन्दघन घणा नाना, छतां तेमने पाटला पर बेसाडी पोते विनयपूर्वक सामे बेसीने वाचना लेता हता." अलबत्त, आ वात दन्तकथा छे के हकीकत, तेनो निर्णय करवानुं कोई साधन नथी ज. परन्तु नेमिसूरिमहाराज पासे परम्परागत आ वात आवी होई ते साव निराधार होय तेम पण मानवू ठीक नथी. ___ धर्मसागरजीने भगवतीसूत्र न आवडतुं होय ते तो शक्य ज नथी; पण आनन्दघनजी पासे कोई विलक्षण रहस्यबोध हशे, अने ते कारणे ज आवा वृद्ध पुरुष पण तेमनो लाभ लेवा प्रेराया हशे एम बनवाजोग छे. अस्तु. -शी.] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520536
Book TitleAnusandhan 2006 06 SrNo 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages70
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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