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निवेदन
परम्परागत मान्यता अने संशोधन-आ बे बाबतो परस्पर विरोधी छे एवी धारणा क्यारेक बंधाई जती होय छे. अविवेक अने अन्धश्रद्धा आवी धारणा बंधावामां मोटो भाग भजवी जतां होय छे. पारम्परिक मान्यता साथै अन्धश्रद्धा जोडाई जाय अने संशोधन साथे अविवेक जोडाई जाय त्यारे 'सत्य' ढंकाई जतुं होय छे अने 'असत्य'नुं चडी वागतुं रहे छे.
स्वस्थ श्रद्धा होय त्यारे पारम्परिक मान्यताओ परत्वे पण संशोधनात्मक दृष्टिथी विचार करी शकाय छे, अने जरूर पड्ये मान्यता - परिवर्तन पण करी शकाय छे. ए ज रीते, विवेकपूत संशोधन क्यारेय 'पारम्परिक वातो बधी खोटी ज छे' एम स्वीकारीने चालतुं नथी. संशोधनदृष्टिने कारणे पारम्परिक मान्यता साची पण पुरवार थई शके अने ते वधु शुद्ध-सम्मार्जित स्वरूपे बहार आवे एवं पण बनी शके.
परम्परागत मन्तव्यनो पिण्ड मुख्यत्वे शास्त्रोना शब्दो द्वारा बंधाय छे. शास्त्रोनो शब्द ए श्रद्धानो विषय छे; 'ननु नच 'नो नहि. तो, संशोधनात्मक मन्तव्यनो पिण्ड ऐतिहासिक तेमज पुरातात्त्विक पुरावा ओना आधारे रचातो होय छे. शास्त्रवचनो अथवा साहित्यिक प्रमाणो तेमां पोतानो सूर पुरावी जरूर शके, पण तेने हमेशां यथार्थ मानीने चालवानुं 'संशोधन' माटे शक्य नथी होतुं.
दृष्टिसम्पन्न, विवेकी मनुष्यनुं कर्तव्य छे के परम्परा तथा संशोधन - ए बन्ने वच्चे समन्वयात्मक सन्तुलन शोधवं, बनाववुं दृष्टिनो उघाड थयो होय तो संशोधन थकी परम्परा पुष्ट थाय तेवुं घणुं मळे, अवश्य मळे. दृष्टिना उघाडनी पूर्वशरत एटली जः अभिनिवेश तथा पूर्वग्रहथी मुक्त बनो.
संशोधन अटकवानुं नथी. परम्परा खरेखर खोटी अथवा नबळी हशे तो ते संशोधनना प्रवाहमां तणाई ज जवानी छे. बाकी, स्वस्थ परम्पराए संशोधनथी भय राखवानुं कोई ज कारण नथी. "निर्दोषं काञ्चनं चेत् स्यात्, परीक्षाया बिभेति किम् ?" ए वात याद राखवानी छे. भय, आक्रोश, विरोध तो परम्परा माटे हानिकर ज बनी रहे, ए तथ्य भूलवा जेवुं नथी.
आ बधां वानां
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प्रमाणभूत तथ्योनुं निरन्तर अने निरन्तराय स्वागत ए आपणी परम्परानुं स्वस्थ लक्षण हो !
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शी.
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