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________________ June-2005 सांभळी ! (क. १७). हवे तो गोळमां पडेली माखी जेवो के पाणीमां डूबाडेल कंबल जेवो मारो घाट थयो छे ! हुं नीकळी शकुं नहिज. (क. १९-२०). 'नाजनुं धन नाजमां, व्याजनुं व्याजमां अने राजनुं राजमां' एवं ऊखाणुं तो सांभळेलुं, पण लोभनो मार्यो हुं तेने अवगणतो ज रह्यो ! (क. २३). आम वैराग्यबोधक उपदेश छेक सुधी वर्णवायो छे, जे जीवनना वास्तवनुं भान करावी जाय छे. ३२मी कडीमां 'सुगण - सुगुण जनने' समजाववा माटे आ बत्रीशी रची होवानुं रचयिता रुघपति पाठक जणावे छे. 'पाठक रघुपति' ए मूळ नाम छे. ते स्थानकवासी अथवा तेरापंथी परम्पराना होय तेम अनुमान थाय छे. लेखन वर्ष सं. १८८६ छे, एटले ते पूर्वेनी आ रचना छे. मने जडेल एक पानांनी आ प्रत उपरथी आवड्युं तेवुं सम्पादन करीने मोकल्युं छे. भूलचुक होय तो ध्यान दोरवा विद्वान् पुरुषोने प्रार्थना करूं छं. सुगणबत्तीसी ॥ सुगण बूढापो आवियौ, लखीयो नही भाई । रात दिवस दंधै रह्यो, केई कीध कमाई ॥१॥ सु. माहरी कर कर मांनतौ, मद धरतौ मोटो । जांण्यो थी हीरो लाखरो, नींकलियौ खोटो ॥२॥ सु० तरुणी परणी हाथरी, घरणी घर हेर्यो । धन ऊपर मन धारियौ, मोसुं मन फेर्यो || ३ || सु० जीम्यां विण नही जीमती, पति - भगति नारी । जी-जी करती जीमती, विधि तेह विसारी ||४|| सु० स्युं पालै बेटा पोतरा, मनगम मेवै । मोनै खाटी घाठडी, दोय टंकै देवै ॥५॥ सु० मोटा बेटा माहरा, मोसुं हूआ मोटा । ले ले धन लोंटापणै, सहु हुआ जूवा ॥६॥ सु० कुलवंती बेटाबहू धन दे दे आंणी । ले बेटा अलगी रही, कीधी दिस कांणी ॥७॥ सु० छोटो मो भेलो रह्यो, तेहनी पिण नारी । बोलै ओछा बोलडा, अजे नाई बारी ॥८॥ सु० 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520532
Book TitleAnusandhan 2005 06 SrNo 32
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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