SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुसंधान-२६ मूळ वात पर आवीए. श्रीविजयनेमिसूरि महाराज स्वयं आ बधां काव्योना ऊंडा अध्येता तो हता ज, साथे साथे पोताना अनेक शिष्योने तेमणे आ काव्यो भणाव्यां पण हतां. एवं सांभळ्युं छे के तेओ ज्यारे आ काव्यो भणाववा बेसता, त्यारे एक एक श्लोक पर कलाको लेता. श्लोकना एकेक शब्दनी व्युत्पत्ति, तेनुं व्याकरण, तेना कोश, तेना सन्दर्भों, तेना अनेक अर्थो, तेनो मर्म - आ बधुं शोधवानुं तेओ शीखवता; अध्येताओ पासे शोधावता; अने एम करीने आखोये श्लोक खण्डशः तथा दण्डशः समजाई जाय, पछी तेना छन्द, अलङ्कार, रस अने तेना भावो वगेरेनी पण निरांतवी चर्चा करता. घणी वखत एक ज श्लोकने समग्रतया खोलवामां दिवसो वही जता. परन्तु परिणाम ए आवतुं के एमनी पासे आ रीते भणनारो शिष्य, ५-७ श्लोक भणे, एटले बाकीना समग्र महाकाव्यने उकेलवानी चावी अर्थात् क्षमता तेनामां स्वयमेव प्रगटी जती. आ वातमां भारोभार तथ्य होवानुं, प्रस्तुत टीकानुं अध्ययन करतां ज प्रतीत थाय तेम छे. रघुवंशना प्रथम सर्गने न लईने बीजो सर्ग ज केम लीधो ? ते सवाल सहेजे थाय. तेना उत्तरमां बे कारणो कल्पी शकाय: १. संस्कृत साहित्यना अभ्यासी, महाकाव्योना अध्ययननी एक परंपराथी वाकेफ हशे के 'रघुवंश' भणवानो शुभारम्भ बीजा सर्गथी ज कराय छे; प्रथम सर्ग भणाववामां आवतो नथी. शक्य छे के ए परंपरानो निर्वाह अहीं टीकाकारे कर्यो होय. २. टीकाकारनो मुख्य आशय 'काव्य-विवरण'नो न होतां काव्यना आलम्बन द्वारा 'अहिंसा' ना परम तत्त्वने निरूपवानो होय, एम लागे छे. अलबत्त, काव्यना पारम्परिक विवरणमां तेओ क्यांय ऊणा ऊतरता नथी; वल्के मल्लिनाथ जेवा आरूढ टीकाकारने पण हंफावी दे तेवी सशक्त व्याख्या तेओ आपे छे. आम छतां, मनो निहित आशय, उपर सूचव्युं तेम, अहिंसातत्त्वना मर्मोद्घाटननो होय तेम लाग्या करे छे. ३०मा पद्यनी टीका अधूरी रही छे ते पूरी रचाई होत, अने ते पछीना सिंह अने दिलीप वच्चे थयेला संवादनी, सिंह द्वारा गोवध माटेना पडकार अने गायना दैवी रक्षणनी तथा ते पछीनी राजानी स्थितिनी वार्ता वर्णवतां पद्योनी टीका मळी होत तो, उपरनी सम्भावनानी तथ्यता वधु स्पष्ट थई शकत. तो, पोताना आ आशयने सिद्ध करवामां टीकाकारने मात्र बीजो सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520526
Book TitleAnusandhan 2003 12 SrNo 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy