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________________ श्रीजयंत कोठारीनी पण चिरविदाय सद्गत भायाणीजीनी चिरविदायना आघातनी कळ वळे, त्यां तो बीजो आंचको आव्यो, जयंतभाईना देहान्तनो ! अमे, एटले हुं तेम ज प्रा. शिरीष पंचाल, जयदेव शुक्ल, राजेश पंड्या वगेरे, सावलीमां मजानो साहित्यिक संवाद करता बेठा हता, अने अचानक शिरीषभाईए कह्युं : जयंतभाई गया ! आ सांभळतां ज हैयुं थडकी उठ्युं. पछीनी पूर्व- आयोजित तमाम प्रवृत्ति यंत्रवत् करी, पण मन घेरा विषादमां गरकाव ज रह्युं हवेनो शून्यावकाश केवो वसमो हशे, तेनी कल्पनाए ज मगज बहेर मारी गयुं. 271 भायाणी अने कोठारी - आ बेनी जग्या लई शकें तेवा कोई विद्यापुरुष, खास करीने संस्कृत - प्राकृत- अपभ्रंश अने मध्यकालीन भाषा - साहित्यना क्षेत्रमां, हवे उपलब्ध नथी, आ कठोर वस्तुस्थितिनो स्वीकार करतां पण धूजी जवाय छे. कालदेवता आगळ आपणी शी विसात ? एक महत्त्वपूर्ण अने महत्त्वाकांक्षी योजना जयंतभाईए छेल्ला महिनाओमां हाथ पर लीधी हती : मो. द. देसाई कृत " जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास" ना पुन: संपादननी पुनरुद्धारनी. आ कार्यनो प्रकाशन- भार तेमणे श्रीहेमचन्द्राचार्य निधिने सोंपेलो, एटले ते रीते मारे पण तेमनी साथे विशेषे संकळावानुं हतुं. अने एक वात निःसंदेह छे के आ कार्य जयंतभाई सिवाय अन्य कोई पार पाडी शके तेम नथी ज. - भायाणीसाहेब माटे 'अनुसन्धान 'नो विशेष अंक करवानी वाते पत्रचर्चा थई, तो तेनो तेमणे जे उत्तर आप्यो, ते अत्यंत विचित्र रीते ज, जयंतभाईना कार्य-परत्वे पण लागु पडे तेम छे. जयंतभाईना मारा परना अंतिम बे पत्रो अत्रे मूकवानी लालच रोकी सकतो नथी. Jain Education International For Private & Personal Use Only — शीलचन्द्रविजय www.jainelibrary.org
SR No.520518
Book TitleAnusandhan 2001 00 SrNo 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages292
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size15 MB
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