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________________ 270 श्री भायाणीसाहेबनी चिरविदाय भायाणीसाहेब विशे कांई पण लखवुं मारा माटे मुश्केल छे. तेमनी चिरविदायना खबर जाणीने एवो तो आकरो आघात अनुभवेलो के मांड थाळे पडेली नादुरस्तीए पाछो उथलो मार्यो, अने महाप्रयासे तबियतने वधु कथळतां रोकी शकाई. पछी तो महिनाओ सुधी तेमना विषे लखवानुं मनमां विचारतो रह्यो, पण कशुं उगे ज नहि ! अत्यंत निकटता क्यारेक आवी स्थिति सरजती होय छे. हुं तेमने 'भायाणीसाहेब' एम संबोधन करतो. तेमने ते न गमतुं. तेओ वारंवार टोके के महाराजश्री, मने हरिवल्लभभाई कहो के भायाणी एम कहो. 'साहेब' तमे कहो ते बराबर न कहेवाय. पत्रमां पण आज फरियाद करे. पण केटलाक शब्दो एक रूढिप्रयोग बनीने जीभे चडी-वसी गया होय छे, तेमां फेरफार थवो अशक्य हतो; अने एवो फेरफार आत्मीयता घटाडीने आपणामां तोछडाई पण सूचवी शके. 'मुक्तक- मकरन्द' मां मूकवा माटे एक नानकडुं लखाण मोकल्युं, तेमां २-४ वार 'साहेब' शब्द प्रयोजेलो. तेमणे मारी असंमंतिने धरार अवगणीने सर्वत्र 'भायाणीभाई' एवो फेरफार करी दीघेलो. मने तो ते आजे पण बहु अडवुं - अतडुं लागे छे, परंतु तेमनी लघुता अने नम्रता आगळ आपणे लाचार ! विद्यावान पुरुष केवो सत्त्वशील होय, खुल्ला मननो होय, प्रसन्न अने हळवो होय, विद्या- संपादन अने अध्यापननी जागरुक धगशवाळो होय, सदाचार अने शिष्टताथी सम्पन्न होय, अन्याय तेम ज अविद्या परत्वे प्रचंड पुण्यप्रकोप धरावनार होय, तेनो सुभग अने सुमधुर परिचय भायाणीजीना समागमथी थयो छे, अने आवा, माणसाईथी हर्याभर्या विद्वज्जननो सत्संग मळ्यो, तेने जीवतरनो एक मोंघेरो ल्हावो समजुं छं. बस, आथी विशेष लखवानुं सामर्थ्य नथी. Jain Education International For Private & Personal Use Only wda.com शीलचन्द्रविजय www.jainelibrary.org
SR No.520518
Book TitleAnusandhan 2001 00 SrNo 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages292
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size15 MB
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