SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुसंधान-१७ • 148 हाल ___२९ अस्थिर काया हो प्राणी ए खरी, वहइ नव द्वारई हो मलमूत्रई भरी. चूटक मलमूत्रि भारी, अतिअ सारी, रुधिर वीर्य थकी घडी, आहार-जल मल-मूत्र थाइ, शुचि न थाइ देहडी, वाधी अमा मुख अशुचि अन्नई, नुहि किमहिइं निर्मली, ए अशुचि साते धाति बांधी, ऊपरि चरमह कोथली. आभरणि सोहइ सहु मोहइ, अशुचिभावन भावतां, श्रीभरत भूपति लहिउं केवल, आरीसइ मुख जोयतां. सिरि संति जिणेसर - ए ढाल हवि सातमि भावन, लोकसरूप अपार, ___ सुर नर पातालई, त्रिभुवन तणउ रे विचार. एक पुण्यसंयोगई, सुख वेइ सुरलोकि, एक मानवनी गति, नरकि सहइ दुख एक. चूटक एक थाइ माता वली वनिता, तात सुत वली सुत पिता, कुबेरदत्त कुबेरदत्ता, कुबेरसेना अति मता, ए लोकभावन जीवभावन, जेह ध्याइ एकमनां, वैराग्यरंगई चित्त चंगई, नुहि भवभय आसना. जय जगगुरुनी ढाल अट्ठमि भावन भावतां, मनि आश्रव रूंधु, वइरी विषयादिक सबल, ते चित्ति म बंधु. राग रोस परिहरु दूरि, हिंसादिक टालु, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520517
Book TitleAnusandhan 2000 00 SrNo 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy