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________________ आश्रवः कर्मसम्बन्धः कर्मरोधस्तु संवरः । कर्मणां बन्धनाद् बन्धो 'निर्जरा तद्वियोजनम् ॥८॥ अष्टकर्मक्षयान्मोक्षोऽप्यन्तर्भावश्च कश्चन । 'पुण्यस्य संवरे पापस्याऽऽश्रवे क्रियते पुनः । ॥९॥ लब्धानन्तचतुष्कस्य लोकाग्रस्थस्य चाऽऽत्मनः । पक्षीणाष्टकर्मणो मुक्तिरव्यावृत्तिजिनोदिता ॥१०॥ 'सरजोहरणा भैक्ष्यभुजो लुञ्चितमूर्ध्वजाः । श्वेताम्बराः क्षमाशीला: निस्सगा जैनसाधवः ॥११॥ लुञ्चिताः पिच्छकाहस्ताः पाणिपात्रा दिगम्बराः । ऊ शिनो गृहे दातद्धितीयाः स्युजिनर्षयः ॥१२॥ "भुङ्क्ते न केवली न स्त्री मोक्षगेति दिगम्बराः । प्राहुरेषामयं भेदो महान् श्वेताम्बरैः समम् ॥१३॥ इति जैनम् ।। मीमांसकौ द्विधा कर्म-ब्रह्ममीमांसकस्ततः । वेदान्ती "मन्यते ब्रह्म कर्म "भट्ट-प्रभाकरौ ॥१४॥ प्रत्यक्षमनुमानं च वेदाश्चोपमया सह।। अर्थापत्तिरभावश्च "भट्टानां षट्प्रमाण्यसौ ॥१५।। प्रभाकरमते पञ्च तान्येवाऽभाववर्जनात् । अद्वैतवादी वेदान्ती प्रमाणं तु यथा तथा ॥१६।। १.कर्म छूटीयइ ते निर्जरा । २.आठ कर्म क्षय थकी मुक्ति होइ ते मुक्ति नउ लक्षण केहवउ; एक लीनभाव। ३.पुन्यपापनइ संवरइ पुन-पुनिरपि कर्मबंध न करइ(?)। ४.अनंतज्ञान-अनंतदर्शन-चारित्र-सुखलक्षणानि चत्वारि, एहवा ४ अनंत पामइ पछइ आत्मा लोकाग्रकइ विषइ रहइ ।५.क्षीणाष्टकर्मनइ मुक्ति होइ; अपुनरावृत्ति जेनइ कही।६. रजोहरण साथइ लीधइ चालइ।७. भिक्षायइ जिमइ। ८.लोच करइ। ९. दाताना घरकइ विषइ ऊभा रही जिमइ । १०. दिगंबर कहइ-स्त्रीनइ मुक्ति नही, केवलीनइ भुक्ति नही, श्वेतांबरसुं मोटउ भेदजूजूआ। ११.वेदांती उत्तरमीमांसाना जाण ते ब्रह्मनइ मानइ ।१२. भट्टाचार्य अनइ प्रभाकर तेहनउ शिष्य ए बन्नइ कर्मनइ मानइ। १३.भट्टाचार्य छ प्रमाण करी अर्ध(र्थ) सिद्ध मानइ; उत्तरमीमांसाना जाण। १४. षण्णां प्रमाणानां समाहार: षट्प्रमाणी। भट्टाचार्यनइ छविध प्रमाण नेत्रनिर्धारते प्रत्यक्ष(१) वेगला थकी संदेह आणी वस्तु निर्धार कीजइ ते अनुमान(२) वेदोक्त ते प्रमाण(३) उपमा देइने निर्धार कीजइ सु उपमा प्रमाण(४) अणघटनइ घटावी निर्धार कीजई ते अर्थापत्ति ते किम गृहस्थनइ अति आनंदादिकई करी धर्म निर्धारीयइइत्यादि अर्थापत्ति प्रमाण(५) अभाव ते कहीयइ जे एक ठामि अछतइ बीजइ ठामि कीजइ छती-ते किमइहां घट नथी बीजइ ठामि छतउ कीधउ इत्यादि ते अभावप्रमाण(६) । १५. वेदांती एक ब्रह्मनइ मानइ। १६. छ प्रमाणमांहि जेहनउ प्रस्ताव हुइ तेणइ प्रमाणि करी अर्थसिद्धि मानइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520514
Book TitleAnusandhan 1999 00 SrNo 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages144
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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