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________________ Jain Education International શ્રી જૈન સત્ય પ્રકારા-વિશેષાંક [ वर्ष ४ महाराजा सम्प्रतिने जैनधर्म का खूब जोरोंसे प्रचार किया। श्रीसत्यकेतुजी विद्यालङ्कार के शब्दों में- “ सम्राट अशोक का पौत्र और कुनाल का पुत्र सम्राट सम्प्रति जैनधर्म का अनुयायी था, इससे अपने इष्ट धर्म के प्रचार के लिये उद्योग किया, बौद्ध इतिहास में जो स्थान अशोक दा है सम्पति का यही जैन इतिहास में है।" [ac] सम्राट अशोकने जगह जगह बौद्ध मंदिर और मूर्तियों का निर्माण कराया था एवं देश विदेश में योद्धधर्म के प्रचार के लिये प्रयत्न किया था। महाराजा सम्प्रतिने भी जैनधर्म के लिये वैसे ही महत्वपूर्ण कार्य किये। जैन इतिहास के अनुसार महाराजा सम्पतिने सवा लाख नये जैन मंदिर, सवा करोड़ पाषाण प्रतिमायें ९५००० सर्व धातु प्रतिमायें प्रतिष्ठित कराई, हज़ारों ही पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया । सम्राट् सम्प्रतिने शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा के लिये विशाल संघ निकाला। जिल में ५००० मुनियों सहित कुल ५ लाख यात्री थे। उसमें ही पन्ना, माणिक की मूर्तियां और ५००० सोने बान्दी के सैन्यालय विद्यमान थे। कहा जाता है कि वह सम्राट् सम्प्रति प्रतिदिन एक नये मंदिर का निर्माण सुन कर भोजन करता था । सम्प्रति द्वारा निर्माण कराई हुई सैकड़ों मूर्तियां अब भी उपलब्ध है। काशीप्रसादजी जायसवाल अपनी भूमिका में लिखते हैं-" अशोक के पोते महाराजा सम्प्रतिने दक्षिण देश मात्र को जैन और आर्य बना डाला " महाराजा सम्यतिने अनार्य देशों में भी जैनधर्म के प्रचार के लिये माधु तैय्यार करावे, और उन्हें भिन्न भिन्न देश में जैनधर्म के प्रचारार्थ भेजा। इस प्रकार उसके समय में अविस्तान, फगानिस्तान, तुर्किस्तान, ईरान, यूनान, मिश्र, तिब्बत, चीन, ब्रह्मा, आसाम, लड्डा, आफ्रीका और अमेरिका तक जैनधर्म फैल चुका था। इस लिये सम्राट सम्पति को जैनधर्मका प्रचार करनेवाला अंतिम राजर्षि कहा जाता है। जैनधर्म पर इतनी अनन्य भक्ति और अद्धा होने पर भी उस वीरने किसी धर्म के अनुयायी को कष्ट नहीं दिया । प्रजा के सब मनुष्यों को समान भाव से सुख पहुंचाने का प्रयत्न किया, प्रजा के कष्ट निवारण के लिये उसने १७ हजार धर्मशालायें, एक लाख दानशालायें हज़ारों ताला बाग और बगीने, औषधालय और पथिकाश्रम निर्माण कराये । सम्राट् सम्प्रतिने अपने समय में एक विशाल जैन सभा करने का विचार आचार्य श्री सुम्तीहरि के आगे रखा और उनकी स्वीकृति के बाद दूर देशांतर तक मुनिराजों और धनिकों को निमंत्रण भेजा। वह सम्मेलन आचार्य श्री सुहस्तीसूरि की अध्यक्षता में हुआ, और उस समय यह प्रस्ताव रखा गया कि जैसे सम्राट चंद्रगुप्तने वाहर विदेशों में प्रचार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
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