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________________ १-२] કાલકાચય [१०५] कालकाचार्य ने सागरचन्द्र को उसके गर्वका खयाल कराने के लिए विवाद उठाते हुए कहाः-" आचार्यजी! धर्म है या नहीं?" सागरचन्द्र ने कहा “ धर्म अवश्य है " इस पर कालकाचार्य ने निषेध किया। इस विषय पर दोनोंका सूब विवाद हुआ, खूब तर्क वितर्क हुए, आखिर सागरचन्द्र निरुत्तर हुए। इसके पश्चाद इनको विचार हुआ कि यह कोई सामान्य वृद्ध साधु नहीं है। ये तो महान प्रतापी, वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध तथा महाप्रभावशाली पुरुष ज्ञात होते है। इधर वे प्रमादी साधु प्रातःकाल होते ही उठकर देखते हैं तो गुरु महाराज का कुछ ठिकाना नहीं, तो वे बडे लजित हुए । आखिर उनको मकान मालिक द्वारा ज्ञात हुआ कि गुरुमहाराज प्रमादि शिष्यों से उक्ताकर सागरचन्द्रसूरि के पास स्वर्णपुर गए हैं। साधुओंने भी सुवर्णपुर की ओर प्रयाण किया-बडा समूह होने के कारण तीन टुकडी की । एक के पश्चाद एक टुकडी विहार करती जारही है । मार्ग में जन समुदाय पूछता है कि, "कालकाचार्यजी कौन हैं ?" उत्तर में पीछे की टुकडी कहती है 'आगे गए' और आगे की टुकडी कहती है ‘पीछे आरहे है'। इस प्रकार यह टुकडी स्वर्णपुर के निकट आई । जब सागरचन्द्राचार्य को यह ज्ञात हुआ कि गुरु महाराज पधार रहे हैं तब वे उनके स्वागतार्थ सामने आए और पूछा "गुरुदेव (कालकाचार्य महाराज) कहां हैं ?" उत्तर मिला कि, वे तो आपके पास पहले ही आगए है। सागरचन्द्र आश्चर्य में गर्क होगए । अरे ! जिनके साथ मैंने शास्त्रार्थ किया और जिन्हों ने मुझे परास्त किया, वे स्वयं हि गुरु प्रभाकर श्री कालकाचार्य है क्या ! इसी अरसे में सौधर्मेन्द्रने सीमंधर स्वामी के पास जाकर निगोदका स्वरूप सुना और सुनकर पूछा:-“हे स्वामिन् ! इसी प्रकार निगोदका स्वरूप भरतक्षेत्र में कोई जानता है क्या ?'' भगवान ने श्रीमुख से फरमायाः-प्रतिष्ठानपुर में कालकाचार्य हैं वे जानते हैं"* इन्द्र ब्राह्मण का स्वरूप लेकर प्रतिष्ठानपुर में आया और कालकाचार्य के पास आकर निगोद का स्वरूप पूछा । गुरुमहाराजने भी अत्यन्त सूक्ष्म *कालकाचार्यका वर्णन 'स्वर्णपुर' का चल रहा है । इसी अवसर पर इन्द्र 'प्रतिष्ठानपुर' में आते हैं और कालकाचार्य से मिलते हैं । सीमंधर स्वामी ने भी 'प्रतिष्ठानपुर' में होने का बताया है । सम्भव है कि स्वर्णपुर विहार कर पीछे 'प्रतिष्ठानपुर' आगए हो फिर यह घटना घटि हो। Jain Education International For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
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