SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [100] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ-વિશેષાંક [ वर्ष ४ उपदेश से मैंने संसार की असारता समझ ली है । अब मैं माता-पिता की आज्ञा लेने जाता हूँ और जहाँतक मैं पीछा न लौटुं वहां तक आपश्री कहीं अन्यत्र विहार न करें यह मेरी विज्ञप्ति है । कालक- कुमार घर आया और माता-पिता के समक्ष हाथ जोड कर खडा हुआ । माता-पिताने पुत्रको शुभाशिष दी और घोड़ों के सम्बन्ध में पूछा परन्तु कुमारने इस बात को टाल दी और माता-पिता से सविनय निवेदन करने लगा कि:- पूज्यवरों ! मैंने आज से संसार की असारता सम्पूर्ण रीत्या समझ ली है । अतः अब मेरी प्रबल इच्छा दीक्षा लेने की है | अतएव मुझे चारित्र लेने की आज्ञा दीजिये । पुत्र के ये वचन सुन माता-पिता स्तब्ध हो गए । उन्होंने कुमार कालक को साधु धर्म में रहे हुए कष्टों को सुनाकर भाँति भाँति से समझाया परन्तु कुमार पक्के रंग में रंगा हुआ था । कुमार के दृढ निश्चय को देखकर माता -पिता को अनुमति देनी पडी । भाई का उत्कृष्ट वैराग्य देख राजकुमारी सरस्वती ने भी दीक्षा लेने की ठान ली । राजा वज्रसिंह ने महान उत्सव पूर्वक अपने पुत्र-पुत्री को दीक्षा दीलाई । तत्पश्चात् माता-पिता ने कहा कि " यह तुम्हारी बहिन है, अतः इसकी ठीक तरह से संभाल रखना- रक्षा करना " कालक - कुमार अल्प समय ही में व्याकरण, न्याय, साहित्य, अलंकार, छंद, ज्योतिष तथा मंत्र-तंत्रादि में निपुण होगए । गुरु महाराज ने कालक- कुमार को आचार्यपद के योग्य समझ आचार्यपद से अलंकृत कीया । तब से ये कालकाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए । कालकाचार्य अनेक साधुओं के साथ विहार करते हुए उज्जैनी के बहार किसी उद्यान में ठहरे । उसी अरसे में सरस्वती साध्वीजी भी ग्रामानुग्राम विचरती हुई उज्जैनी में आई । वह प्रतिदिन आचार्यश्रीका व्याख्यान सुनने के लिए बाहर उद्यान में जाया करती थी । उस समय उज्जैनी का राजा गर्दभिल्ल था । वह महा विषयी तथा दुराचारी था । एक समय इसकी दृष्टि सुरूपवती बालब्रह्मचारिणी साध्वी सरस्वती पर पडी । वह उस पर मोहित होगया । महल में आते ही उसने अपने सेवक भेजकर उस साध्वी को अपने अंतेउरमें पकड मंगवाई | पकडते समय सरस्वती खूब चिल्लाई और आकन्द करने लगी । उसके साथकी दूसरी साध्वीयें, तत्काल कालकाचार्य के पास आई और सरस्वती के संकट की सर्व हकीकत निवेदन की । कालकाचार्य की आँखों में क्षत्रिय रक्त की अरुणिमा चमकने लगी: " प्रजाका पालक एक राजा, जगत का कल्याण करनेवाली बालब्रह्मचारिणी साध्वी के उपर इस प्रकार Jain Educatioअत्याचार करे ?" वे उसी क्षण राजा के पास गए और उसे शान्तिपूर्वक/inelibrary.org
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy