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________________ जिन सूत्र भागः2 - यह केसर तो झरेगी। क्या करोगे तब ? तब बहुत पछताओगे, पता नहीं कि मिट तुम सकते नहीं। ऐसी उलझन है। जो आदमी | तब रोओगे। लेकिन रोने से कछ आता नहीं। रोने से कछ होता मिटने को राजी है वह उसको पा लेता है नहीं। जागो! इसके पहले कि केसर झर जाए, इसके पहले कि उसको पाते ही से भय मिट जाता है। जीवन का दीया बुझे, तुम जीवन के उस शाश्वत दीये को देख लो मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहे जो कभी नहीं बुझता। उससे संबंध जोड़ लो। इस लहर का कि दाना खाक में मिलकर गुले-गुलजार होता है उपयोग कर लो। यह लहर तुम्हारी शत्रु नहीं है, यह तुम्हारी मित्र | परिधि पर तो मिटना होगाहै। इसी से संसार, इसी से सत्य, दोनों की यात्राएं पूरी होती हैं। कि दाना खाक में मिलकर गुले-गुलजार होता है। __ महावीर केवल मील के पत्थर दे रहे हैं। जब तक तुमने स्वयं मिटता है बीज। परिधि पर ही मिटता है। खोल टती है और के भीतर के अमृत को नहीं जाना तब तक तुम मरघट में हो, तत्क्षण अंकुरण हो जाता है नया जीवन। और एक बीज से कब्रिस्तान में। करोड़ों बीज पैदा होते हैं। और जो बंद बीज था वह हजारों फूलों इब्राहीम फकीर हुआ। उससे कोई पूछता कि गांव कहां? | में खिलता और नाचता और हंसता है। बस्ती कहां? तो वह कहता, बायें जाना। दायें भूलकर मत जाना कि दाना खाक में मिलकर गुले-गुलजार होता है बायें जाना, नहीं तो भटक जाओगे। बायें से बस्ती पहुंच मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहे जाओगे। बेचारा राहगीर चलता। चार-पांच मील चलने के बाद अगर कुछ होना चाहते हो तो मिटना सीखो। अगर कोई मर्तबा मरघट पहुंच जाता। वह बड़े क्रोध में आ जाता कि यह आदमी चाहते हो, अगर वस्तुतः चाहते हो हस्ती मिले, होना मिले, कैसा है! फकीर वहां चौरस्ते पर बैठा है। वह लौटकर आता, | अस्तित्व मिले तो-मिटो। परिधि पर मिटो ताकि केंद्र पर हो भनभनाता कि तुम आदमी कैसे हो जी! मुझे मरघट भेज दिया ? | सको। परिधि से डुबकी लगा लो और केंद्र पर उभरो। परिधि मैं बस्ती की पूछता था। को छोड़ो और केंद्र पर सरको।। इब्राहिम कहता, बस्ती की पूछा इसीलिए तो वहां भेजा क्योंकि | __ 'जहां न कर्म हैं न नोकर्म, न चिंता है न आर्तरौद्र ध्यान, न जिसको लोग बस्ती कहते हैं वह तो बस उजड़ रही है, उजड़ रही धर्मध्यान है न शुक्लध्यान, वहीं निर्वाण है।' है। रोज कोई मरता है। इस मरघट में जो बस गया सो बस ण वि कम्मं णोकम्मं, ण वि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि। गया। 'बस्ती!' कभी इधर किसी को उजड़ते देखा ही नहीं। ण वि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।। इसलिए तुमने बस्ती पूछी तो मैंने कहा, बस्ती भेज दें। जहां न कर्म हैं. न कर्मों की आधारभूत शंखलाएं-नोकर्म। न कबीर कहते हैं, 'ई मुर्दन के गांव।' हमारे गांव को कहते हैं जहां कर्म है न कर्मों को बनानेवाली सूक्ष्म वासनाएं। न चिंता है, मुर्दो के गांव। | न चिंतन, न आर्तरौद्र ध्यान।। हम जब तक परिधि पर हैं, हम मुर्दे ही हैं। हमने अपने मर्त्य | ठीक है, आर्तरौद्र ध्यान तो हो ही कैसे सकते हैं? क्रोध और रूप से ही संबंध बांध रखा है तो मुर्दे हैं। और हम कंप रहे हैं और दुख में भरे हुए चित्त की अवस्थाएं हैं। लेकिन महावीर कहते हैं घबड़ा रहे हैं। घबड़ाहट स्वाभाविक है, मिटेगी न। न जहां धर्मध्यान, न शुक्लध्यान। जहां ध्यान की आत्यंतिक मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं बड़ा भय लगता है। मैं अवस्थाएं भी पीछे छट गई। सविकल्प समाधि पीछे छट गई. पूछता हूं, किस बात का भय? वे कहते हैं किसी बात का खास निर्विकल्प समाधि पीछे छूट गई। समाधि ही पीछे छूट गई। भय नहीं, बस भय लगता है। ठीक कह रहे हैं। लगेगा ही। वे जहां बस तुम हो शुद्ध; और कुछ भी नहीं है। कोई तरंग, कोई कहते हैं. किसी तरह यह भय मिट जाए। यह भय ऐसे नहीं विकार, कुछ भी नहीं है। बस तुम हो शुद्ध निर्विकार। जहां | मिटेगा। यह तो तुम रूपांतरित होओगे तो ही मिटेगा। यह तो तुम्हारा सिर्फ धड़कता हुआ जीवन है, वहीं निर्वाण है। अमृत का स्वाद लगेगा तो ही मिटेगा। यह भय मौत का है। संसार ही नहीं छोड़ देना है, धर्म भी छोड़ देना है। महावीर मौत का भय है और मिटना तुम चाहते नहीं। और तुम्हें यह कहते हैं धर्मध्यान, शुक्लध्यान। शुक्लध्यान महावीर का 542 Jain Education International 2010 03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340162
Book TitleJinsutra Lecture 62 Yad Ghar Bulane Lagi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size37 MB
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