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________________ wan .... | 24 जिन सूत्र भाग: 2 के। खूब वर्षा हुई उनके कारण; और जिनके बीज जन्मों से दबे हुआ। यह तल तो नींद से अछूता रहा है। कुंआरा है यह तल। पड़े थे, अंकुरित हुए। इस पर न नींद कभी आयी, न कभी सपना उतरा। इंद्रियां यहां निर्वाण की उपलब्धि के बाद भी चालीस-ब्यालीस साल तक तक पहुंचीं नहीं। शरीर यहां तक पहुंचा नहीं। यह शरीर और भी शरीर था, इंद्रियां थीं। लेकिन महावीर कहते हैं, निर्वाण की इंद्रियों के पार। अवस्था, आंतरिक ऐसी अवस्था है कि वहां पहुंचकर तुम्हें पता | यह अनुभव है और अनुभव की व्याख्या है। और तुम जब इस चलता है, अरे! शरीर बड़े पीछे रह गया। शरीर बड़े दूर छूट अनुभव में उतरोगे तो तुम्हारे लिए मील के पत्थर बना रहे हैं वे। गया। शरीर परिधि पर पड़ा रह गया और तुम केंद्र पर आ गए। कि तुम यहां से समझ लेना कि निर्वाण शुरू होता है। तुमसे यह इंद्रियां भी वहीं पड़ी रह गईं शरीर पर। स्वभावतः जब शरीर पीछे नहीं कहा जा रहा है कि तुम ऐसा करना शुरू कर दो। छोड़ दो छूट गया तो शरीर की भूख, प्यास, निद्रा, जागृति, सब पीछे छूट भोजन, नींद छोड़ दो, बैठ जाओ। यह तो पागलपन होगा। गई। अचानक तुम पाते हो कि तुम्हारे भीतर कोई चौबीस घंटे जहां तुम हो शरीर पर...ऐसा समझो कि कोई आदमी अपने जागा हुआ चैतन्य है, जिसको निद्रा की कोई जरूरत ही नहीं है, घर की चारदीवारी के पास ही खड़ा रहता है और सोचता है, यही जो कभी पहले भी नहीं सोया था। तुम्हें याद न थी। तुम्हें पहचान | घर है। धूप आती तो उसके सिर पर धूप पड़ती है, सिर फटने न थी। वह कभी भी न सोया था। वह सो ही नहीं सकता। सोना लगता है। वर्षा आती तो वर्षा में भीगता, शरीर कंपने लगता। उसका गुणधर्म नहीं है। लेकिन वह जानता है यहीं चारदीवारी के बाहर, यहीं मेरा घर है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, 'या निशा सर्व भूतानां, तस्यां जागर्ति | महावीर कहते हैं, तुम्हारा घर, तुम्हारा अंतर्गृह-वहां न वर्षा संयमी।' सब जब सोते हैं तब भी संयमी जागता है। इसका यह | होती, न धूप आती। तुम जरा पीछे सरको। तुम जरा परिधि को मतलब नहीं है कि संयमी पागल की तरह टहलता रहता है कमरे | छोड़ो और केंद्र की तरफ चलो। जैसे-जैसे तुम केंद्र की छाया में में; कि बैठा रहता है अपनी खाट पर पालथी मारे, कि संयमी सो | पहुंचोगे, तुम अचानक पाओगे, सुरक्षित। सभी बाधाओं से कैसे सकता है? सरक्षित। वे सभी घटनाएं परिधि पर घटती हैं। हालांकि ऐसे मूढ़ संयमी भी हैं, जो नींद में उतरने से घबड़ाते हैं जैसे सागर की सतह पर तूफान आते, आंधियां आतीं, लेकिन क्योंकि नींद में उतरे कि जो संयम किसी तरह साधा है वह टूटता | सागर की गहराई में न तो कभी कोई तूफान आता, न कोई आंधी है। दिनभर किसी तरह स्त्रियों की तरफ नहीं देखा, सपने में क्या | आती। जैसे-जैसे गहरे जाने लगो...जो लोग सागर की गहराई करोगे? सपने में तो तुम्हारा बस नहीं। आंख बंद हुई कि में खोज करते हैं वे कहते हैं कि सागर की गहराई में अनूठे जिन-जिन स्त्रियों से दिनभर आंख चुराते रहे, वे सब अनुभव होते हैं। अनूठा अनुभव होता है। एक अनुभव तो यह आयीं-और सुंदर होकर, और सजकर आ जाती हैं। जैसी होता है कि वहां कोई तूफान नहीं, कोई आंधी नहीं, कोई लहर सुंदर स्त्री सपने में होती है वैसी कहीं वस्तुतः थोड़े ही होती है! नहीं। सब परम सन्नाटा है। जैसा सुंदर पुरुष सपने में होता है, वस्तुतः थोड़े ही होता है! जैसे-जैसे गहरे जाते हो...जैसे पैसिफिक महासागर पांच तो भागोगे कहां? नींद में तो भाग भी न सकोगे। और नींद में मील गहरा है। आधा मील की गहराई के बाद सूरज की किरणें भूल गए सब शास्त्र कि तुम जैन हो कि हिंदू हो कि मुसलमान कि भी नहीं पहुंचतीं। पांच मील की गहराई पर सूरज की किरण संसारी कि संन्यासी-गया सब! कभी पहुंची ही नहीं। अनंत काल से गहन अंधकार वहां सोया तो आदमी नींद से डरता है। मगर जो नींद से डर रहा है वह / है। वहां सतह की कोई खबर ही नहीं पहुंची। हवा है, तूफान है, कोई निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो जाता। आंधी है, बादल है, बरसात है, धूप है, ताप है, शीत आयी, गर्मी महावीर कहते हैं, जो निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है वह | आयी, कुछ वहां पता नहीं चलता। वहां कोई मौसम बदलता जानता है कि नींद तो है ही नहीं। यहां तो नींद कभी घटी ही नहीं। वहां सदा एकरस। नहीं। इस गहराई के तल पर तो नींद का कभी प्रवेश ही नहीं पैसिफिक महासागर की जो गहराई है, वह तो कुछ भी नहीं; 6401 | JainEducation International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340162
Book TitleJinsutra Lecture 62 Yad Ghar Bulane Lagi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size37 MB
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