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________________ आज लहरों में निमंत्रण है वह थोड़े ही! जो मौन में प्रतीत होता है वही। जिसे तुम देखते बचेगा। तुम भी खो जाओगे। हो वह तो केवल रूप है, आकार है। जो उस रूप और आकर में और अंत तक अगर तमने यह हिम्मत रखी, कि तुमने नहीं छिपा निराकार है। कहा कि रुको, ठहरो, यह मैं खोया जा रहा हूं, तो ही तुम पहुंच अज्ञात वय-कुल-शील मेरे मीत! पाओगे। मिटकर ही कोई पहुंचता है। मरकर ही कोई पाता है। ऐसी मित्रता बांधनी बड़ी मुश्किल है। क्योंकि न कुल का पता, इसलिए बहुत स्वाभाविक है कि लोग डरते हैं। डरने के कारण न वय का पता। कहां ले जाओगे? कहां ले चले? कुछ भी अपने आसपास विचार की बागुड़ खड़ी करते हैं। डरने के कारण पता नहीं। अज्ञात की यात्रा है। | मुर्दा मंदिरों में, मस्जिदों में पूजा कर लेते हैं। ऐसे मन को समझा तुम, जिसे मैंने किया याद लेते हैं कि हम भी धार्मिक हैं। शास्त्र को लेकर बैठ जाते हैं। पढ़ जिससे बंधी मेरी प्रीति लेते हैं, गुनगुना लेते हैं, पाठ कर लेते हैं। ऐसे मन को भ्रांति दे और यह बंधन प्रेम का है। यह तर्क का नहीं है। तुम अगर मेरे लेते हैं कि हम कुछ ऐसे ही जीवन नहीं गंवा रहे हैं! गीता पढ़ते पास हो और किसी भांति मुझसे बंध गए हो, तो यह बंधन हृदय | हैं, कुरान पढ़ते हैं, जिन-सूत्र पढ़ते हैं। का है। यह अकारण है। तुम्हें प्रेम हो गया। और जब तक किसी लेकिन तुम जो पढ़ोगे वह तुम्हारा ही अर्थ होगा। महावीर का को प्रेम न हो जाए, तब तक पास होने की कोई सुविधा नहीं है। अर्थ तो तुम महावीर होकर ही जान सकते हो। और कोई उपाय तुम, जिसे मैंने किया याद नहीं। क्योंकि शब्द तो बाहर से आ जाते हैं। अर्थ कहां से जिससे बंधी मेरी प्रीति लाओगे? अर्थ तो भीतर से आएगा। कौन तुम अज्ञात वय-कुल-शील मेरे मीत? इसीलिए तो एक तरफ कहते हो, जिन-शासन ही सत्य है। कर्म की बाधा नहीं तुम और दूसरी तरफ कहे चले जाते हो, कि और सब मिथ्या है। तुम नहीं प्रवत्ति से उपरांत जिन-शासन का अर्थ ही यही होता है कि यहां पूर्ण मिथ्या कोई सदगुरु तुम्हें प्रवृत्ति से उपरांत थोड़े ही करता है! सदगुरु तुम्हें भी नहीं! मिथ्या में भी सत्य है छिपा। तुम मिथ्या-मिथ्या को तोड़ता थोड़े ही तुम्हारे संसार से! तुम्हारे संसार में ही तुम्हें नए छोड़ देना। असार-असार को त्याग देना, सार-सार को ग्रहण होने का ढंग देता है। कर लेना। हंसा तो मोती चुगै—चुन लेना मोती। कंकड़-पत्थर कर्म की बाधा नहीं तुम से तुम्हें क्या लेना-देना? सदगुरु तुम्हें यह थोड़े ही कहता है, कि छोड़ो-छाड़ो, भागो! भगोड़ा थोड़े ही बनाता! सदगुरु तम्हें जगाता। वह कहता, भागो दूसरा प्रश्न : पिछले एक वर्ष के भीतर आश्रम से बाहर के नहीं, जागो। वातावरण में काफी परिवर्तन हुआ है। पहले जो लोग आपके कर्म की बाधा नहीं तुम विरोध में बोलते थे, अब वैसा बोलने में न केवल हिचकते हैं तुम नहीं प्रवृत्ति से उपरांत बल्कि आपमें उत्सुक भी होने लगे हैं। और चाहते हैं कि कैसे कब तुम्हारे हित थमा संघर्ष मेरा? आपके सान्निध्य का लाभ लें? क्या यह संक्रमण की अवस्था रुका मेरा काम | है? और कपया उपदेश दें कि हम संन्यासियों को इस अवस्थ तुम्हें धारे हृदय में में क्या करना उचित है? मैं खुले हाथों सदा दूंगा बाह्य का जो देय न ही गिरने तक कहूंगा, तनिक ठहरूं तुम उनकी तरफ ध्यान ही मत देना। तुम उन्हें टालना। वे कहें क्योंकि मेरा चुक गया पाथेय | कि ले चलो, तुम कहना बड़ा कठिन है। तुम जल्दी मत करना। सदगुरु के साथ जाना एक अंतहीन संघर्ष पर जाना है। जहां उन्हें आने दो अपने से। धीरे-धीरे सब खो जाएगा। पाथेय भी खो जाएगा। कुछ भी न ऐसा ही होता है। तीन सीढ़ियां आदमी का चित्त पूरी करता है। 491 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340155
Book TitleJinsutra Lecture 55 Aaj Laharo me Nimantran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size52 MB
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