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________________ ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत महावीर का पूरा जोर आत्मबल पर, स्वयं की संभावना को जन्म, फिर मृत्यु। एक ही चाक। चाक के आरे घूमते रहते हैं। वास्तविकता बनाने पर है। | यह जो जन्म-मरण रूपी संसरण है, यही संसार है। 'अन्यत्व'-चौथी भावना। स्मरण रखो कि तुम कौन हो। इसे याद रखना। यहां हम मरने से तो बचना चाहते हैं, लेकिन जो बाहर दिखाई पड़ रहे हैं, भाई है, बहन है, पत्नी है, पति है, हमें यह खयाल नहीं कि जब तब हम जन्म से नहीं बचना चाहते मित्र है; वे अन्य हैं। उनके साथ अपने मैं को बहुत ज्यादा ग्रसित | तब तक मरने से न बच सकेंगे। यहां हम मृत्यु से तो बचना मत कर लेना। वह धोखा होगा। परिवार मत बसा लेना। यहां | चाहते हैं और जीवन को पकड़ना चाहते हैं। बड़ी मूढ़ता का कृत्य हम अकेले हैं। अकेले आए, अकेले जाएंगे। यहां परिवार तो है। जिसने जीवन को पकड़ा उसने मृत्यु को भी पकड़ लिया। ये सिर्फ हमारी एक कल्पना है, एक धारणा है। दोनों इकट्ठे हैं। एक ही चके के दो आरे हैं। अकेले चूंकि रहने में घबड़ाहट होती है, एक परिवार बना लेते अगर मृत्यु से बचना हो तो जन्म को भी छोड़ देना। अगर मृत्यु हैं। रास्ते पर दो यात्री मिल जाते हैं, हाथ में हाथ डाल लेते हैं। से बचना हो तो जीवन से भी दूर खड़े हो जाना। जीवेषणा दोनों अपरिचित। कहां से आते हैं, पता नहीं। कहां को जाते हैं, छोड़ोगे तो यमदूतों का आना बंद होगा। जीवेषणा के पीछे पता नहीं। छिपी-छिपी मौत आती है। इसलिए महावीर कहते हैं, संसार के दूसरे बाहर हैं; इनसे मैं अन्य हूं। चाक को याद रखना। फिर यह मेरा शरीर भी मुझसे बाहर है। मेरी चेतना इससे भी 'लोक'- छठवीं धारणा। महावीर कहते हैं, यह संसार जो अन्य है। फिर यह मेरा मन भी मुझसे बाहर है। ये विचार भी दिखाई पड़ रहा है, यह तो संसार है ही; इसके पीछे छिपे हुए मुझसे अन्य हैं। ऐसा काटते जाना—इलिमिनेशन। एक-एक संसार भी हैं, उन सभी संसारों का नाम लोक। नर्क है, स्वर्ग है, को छोड़ते जाना, जिससे तुम्हें पता चल जाए कि यह में नहीं हूं। मनुष्य-लोक है। इन तीनों का इकट्ठा नाम लोक। ऐसे हटते-हटते-हटते-हटते....जैसे कोई प्याज को छीलता है; इससे तो बचना ही। लेकिन यह मत सोचना कि इससे बचकर एक छिलका छीला, दूसरा आया। उसको भी छीलो, वह भी और स्वर्ग में पहुंच जाएंगे। कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर मजा छिलका है। ऐसे छीलते-छीलते अखीर में शून्य हाथ लगता है। करेंगे। वह मजा करने की धारणा इसी संसार को बचा लेने का प्याज पूरी समाप्त हो जाती है। छिलके ही छिलके हैं। उपाय है। ऐसा ही अहंकार पूरा समाप्त हो जाता है। छिलके ही छिलके मजा क्या करोगे? कभी सोचा? कल्पवृक्ष के नीचे बैठ गए हैं। और फिर जो शून्य हाथ में लगता है, उसी को महावीर ने तो करोगे क्या? कभी बैठकर शांति से सोचना कि बैठ गए आत्मा कहा है। वह जो सबसे भीतर छिपा हुआ शून्य साक्षी है, कल्पवृक्ष के नीचे, अब क्या करना? तो तुम पाओगे, सारी द्रष्टा होना जिसका एकमात्र गुणधर्म है, वही मैं हूं। मैं कौन हूं संसार की वासनाएं उठनी शुरू हो गईं। कितना धन यह जानने के लिए पहली प्रक्रिया है यह जानना कि मैं कौन नहीं चाहिए—अचानक तुम कहोगे, हो जाए करोड़ रुपये की हूं। गलत के साथ संबंध छोड़ते-छोड़ते एक दिन पता चलता है | बरसात। आ जाएं सजी हुई थालियां भोजन की, कि नाचने लगें ठीक का। कृष्णमूर्ति कहते हैं, असार को पहचान लेना, सार को सुंदर स्त्रियां आसपास, कि मिल जाए सिंहासन चक्रवर्ती का। पहचान लेने की पहली व्यवस्था है। असत्य को समझ लेना तुम जरा बैठकर सोचना। अभी बैठे नहीं हो कल्पवृक्ष के सत्य की तरफ पहला कदम है। क्या गलत है इसे समझ लेना | नीचे, लेकिन सिर्फ कल्पना भी करोगे तो तुम पाओगे, कल्पवृक्ष क्या ठीक है, उसकी तरफ यात्रा बन जाती है। का खयाल आते ही सारा संसार फिर आ गया। पांचवीं भावना-'संसार।' इस संसार को भूलना मत। तो महावीर कहते हैं, संसार से ही नहीं छूटना, संसार के पीछे संसार का अर्थ है महावीर के विचारों में: जन्म-मरण रूप छिपे संसारों से भी छटना है। संसरण; इसीलिए संसार। यह जो चाक है जन्म-मरण | 'अशचि'-सातवीं धारणा। महावीर कहते हैं, जहां-जहां | का-घूमता रहता है, घूमता रहता है-जन्म, फिर मृत्यु; फिर | मिश्रण है वहां-वहां अशुद्धि है। 383 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340150
Book TitleJinsutra Lecture 50 Dhyanagni se Karm Bhasmibhut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size41 MB
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