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________________ BAD M ASite मनुष्य कुछ खोज रहा है। मनुष्य खोज है। खोज को मनुष्य खड़ा नहीं, जैसे वृक्ष खड़े हैं। मनुष्य रुका नहीं, जैसे 7 नाम हम कुछ भी दें। कहें आनंद, कहें महाजीवन, पशु-पक्षी रुके हैं। टटोलता है, अंधेरे में सही। गिरता है, फिर कहें परमात्मा, निर्वाण, मोक्ष; यह भेद नामों के हैं। उठता है। कहीं कोई एक अदम्य भरोसा है गहरे में कि कुछ पाने एक बात सुनिश्चित है कि आदमी चाहे कैसा ही हो, खोज रहा को है। जीवन जैसा दिखायी पड़ता है, उतने पर समाप्त नहीं। है। ठीक-ठीक साफ भी न हो कि क्या खोज रहा हूं, फिर भी कुछ छिपा है। उसे उघाड़ना है। उसका आविष्कार करना है। खोज रहा है। खोज जैसे मनुष्य का अंतर्तम है। बिना खोजे यह जो दिखायी पड़ रहा है, यह केवल बाह्य रूप है। भीतर कुछ मनुष्य नहीं रह सकता। खोज में ही मनुष्य की मनुष्यता है। हीरे छिपे होंगे। जब परिधि है, तो केंद्र भी होगा। जब घर की पशु-पक्षी हैं। खोज नहीं रहे हैं। वृक्ष हैं, चट्टानें-पहाड़ हैं, बाहर की दीवाल है, तो भीतर का अंतर्तम मंदिर भी होगा। तो हैं। खोज नहीं रहे हैं। कहीं जा नहीं रहे, कोई जिज्ञासा नहीं। | आदमी उघाड़ रहा है, पर्दे उघाड़ रहा है। चूंघट हटा रहा है। इस अस्तित्व जैसा है, स्वीकार है। कोई रूपांतर करने की कामना | खोज के दो रूप हो सकते हैं। एक रूप, जिससे विज्ञान पैदा नहीं। क्रांति का कोई स्वर नहीं। प्रकृति में विकास है, मनुष्य में होता है। तब हम पर्दा उठाते हैं जरूर, अपने पर से नहीं उठाते; क्रांति है। वहीं मनुष्य भिन्न है। पर पर से उठाते हैं। विज्ञान भी घूघट हटाता है, लेकिन वैज्ञानिक डार्विन का सिद्धांत सारी प्रकृति के संबंध में सही है, आदमी स्वयं चूंघट में रह जाता है। आइंस्टीन ने खोज लिया हो कोई भर को छोड़कर। प्रकृति विकास कर रही है। कर रही है कहना | सत्य सापेक्षता का प्रकृति में, अस्तित्व में, लेकिन खुद पर्दे में ठीक नहीं, हो रहा है। विकास या 'एवोल्यूशन' का अर्थ ही और चूंघट में रह गया। इतना है, जो तुम्हारे बिना किये हो रहा है। मनुष्य भर कुछ ऐसा मरते वक्त आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि दुबारा जन्म हो, तो है कि कुछ करता है। उस करने में क्रांति है। जो होता है, विकास तुम क्या बनना चाहोगे? तो उसने कहा एक बात पक्की है, है; जो किया जाता है, वही क्रांति है। वैज्ञानिक न बनना चाहूंगा। प्लंबर भी बन जाऊंगा तो ठीक है, इस क्रांति की दृष्टि को बहुत गहरे में पकड़ लेना जरूरी है कि | लेकिन वैज्ञानिक न बनना चाहूंगा। क्या कारण था आइंस्टीन को मनुष्य बिना किये नहीं रह सकता। कुछ करेगा, कुछ बदलेगा। ऐसा कहने का कि वैज्ञानिक न बनना चाहूंगा? पूछा तो था क्या कुछ मिटायेगा, कुछ बनायेगा। रूपांतरण, सुंदरतम, सत्यतर बनना चाहोगे, उत्तर में उसने कहा क्या नहीं बनना चाहूंगा। की खोज जारी रहती है। कोई छोटे पैमाने पर, कोई बड़े पैमाने वैज्ञानिक नहीं बनना चाहूंगा। एक बात धीरे-धीरे उस मनीषी को पर। कोई दौड़ता है, कोई घसिटता है। लेकिन इस यात्रा में सभी दिखायी पड़ने लगी थी कि दूसरों पर से सब पर्दे भी उठ जाएं, सम्मिलित हैं। और तुम अंधेरे में रह जाओ, तो सार क्या? सारे जगत में सूरज 283 ___Jain Education International 2010-03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340146
Book TitleJinsutra Lecture 46 Twara Se Jina Dhyan Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size35 MB
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