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________________ RSHA त्वरा से जीना ध्यान है तस्स सुहासहडहणो, झाणमओ जायए अग्गी।। मन-मन का अर्थ है, सूक्ष्म तरंगें, जो अभी विचार भी नहीं 'और उस आग में समस्त शुभ-अशुभ कर्मों का विनाश हो बनीं। जिसको फ्रायड अनकांशस कहता है। जिसको फ्रायड जाता है। जहां न राग बचते हैं, न द्वेष बचते हैं, / कांशस माइंड कहता है, उसको महावीर वचन कहते हैं। मन-वचन-काया रूप योगों का व्यापार नहीं बचता।' जो तुम्हारे भीतर विचार के तल पर आ गया, प्रगट हो गया, इसको खयाल में ले लेना, यह ध्यान की अनिवार्य शर्त है। वह विचार-वचन। और जो अभी अप्रगट है, प्रगट होने के 'मन-वचन-काया रूप व्यापार का न रह जाना।' रास्ते पर है, अभी तैयार हो रहा है, अभी गर्भ में छिपा है-वह यह महावीर के ध्यान की पद्धति का अनिवार्य हिस्सा है। | मन। सबसे ज्यादा प्रगट शरीर है, उससे कम प्रगट विचार है, ध्यान की बहुत पद्धतियां हैं। महावीर की अपनी विशिष्ट पद्धति उससे भी कम प्रगट मन है। क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की तरफ है। उसका पहला सूत्र है: मन-वचन-काया रूप योगों का चलना और एक-एक को थिर करते जाना। जब इन तीनों का व्यापार नहीं रह जाए। | व्यापार नहीं रह जाता, तो जो घटना घटती है, उसका नाम जब तुम ध्यान करने बैठो, तो पहली चीज महावीर कहते हैं: ध्यान। 'राग और द्वेष और मोह नहीं।' राग, द्वेष, मोह बाहर शरीर थिर हो, कंपे न। इसके पीछे बड़ा विज्ञान है। क्योंकि की यात्रा पर हैं। भीतर तो तुम अकेले हो, किससे करो राग? शरीर और मन जुड़े हैं। जब शरीर कंपता है, तो मन भी कंपता किससे करो द्वेष? किससे करो मोह ? भीतर तो तुम्हारे है। जब मन कंपता है, तो शरीर भी कंपता है। तुमने देखा, जब अतिरिक्त कोई भी नहीं। तो अपने आप राग, द्वेष, मोह क्षीण हो क्रोध से भर जाते हो, तो हाथ-पैर कंपने लगते हैं। मन कंपा, जाते हैं। ध्यान की घड़ी में न तुम्हारा कोई अपना होता है, न शरीर कंपा। जब तुम भय से भर जाते हो, तो हाथ-पैर कंपित पराया होता है। ध्यान की घड़ी में न तुम्हारा कोई परिग्रह होता होने लगते हैं। मन कंपा, शरीर कंपा। जब तुम्हारा शरीर रुग्ण है। ध्यान की घड़ी में तुम्हारी कोई मालकियत नहीं रह जाती है। होता है, कंपता है, तो मन भी दीन-हीन हो जाता है। तो मन भी और मजा यही है कि ध्यान की घड़ी में तुम पहली दफा मालिक साहस खो देता है, आत्मविश्वास खो देता है, हीनग्रंथि से भर होते हो। मालकियत कोई भी नहीं रह जाती, साम्राज्य सब खो जाता है। शरीर और मन एक-दूसरे पर निरंतर क्रिया-प्रतिक्रिया जाता है और तुम सम्राट होते हो। करते हैं। शरीर स्वस्थ होता है, तो मन भी स्वस्थ होता है। मन | स्वामी रामतीर्थ अपने को बादशाह कहा करते थे। पास कुछ स्वस्थ होता है, तो शरीर भी स्वस्थ होता है। था नहीं। जब अमरीका गये, तो वहां भी वह अपने को बादशाह वैज्ञानिक तो कहते हैं कि मन और शरीर दो चीजें नहीं हैं, एक ही कहते थे। कहते हैं अमरीकी प्रेसीडेंट उनको मिला था तो ही चीज के दो पहलू हैं। और ठीक कहते हैं। पश्चिम में तो उसने पूछा, और सब तो ठीक है, लेकिन आपकी बादशाहत विज्ञान ने शरीर और मन ऐसा कहना ही बंद कर दिया, उन्होंने | समझ में नहीं आती। लंगोटी को छोड़कर आपके पास कुछ भी एक ही शब्द बना लियाः मनोशरीर। दो कहना ठीक नहीं. एक | नहीं, आप कैसे बादशाह! राम तो बोलते थे तो भी वह कहते कि 'बादशाह राम' ऐसा कहता है। उन्होंने किताब लिखी : महावीर को यह प्रतीति साफ रही होगी। इसलिए पहली बात | 'बादशाह राम के छह हुक्मनामे।' राम हंसने लगे। उन्होंने वह कहते हैं-जब ध्यान में बैठो, तो शरीर को बिलकुल थिर | कहा कि इसीलिए तो मैं बादशाह हूं कि मेरे पास कुछ भी नहीं। कर लो। कभी कोशिश करना। जैसे-जैसे शरीर थिर होगा, | जिनके पास कुछ है, उन्हें चिंता होती है। जिनके पास कुछ है, वैसे-वैसे तुम पाओगे मन भी शांत होने लगा। फिर इसके बाद | उन्हें फिक्र होती है। जिनके पास कुछ है, वह उस कुछ के गुलाम वचन को थिर करना। विचार को। शरीर को पहले, क्योंकि वह होते हैं। मैं बादशाह इसीलिए तो हूं कि मैं किसी का गुलाम नहीं, सब से स्थूल है। फिर विचार की तरंगों को धीरे-धीरे शांत | मेरे पास कुछ भी नहीं। पता नहीं अमरीकी प्रे करना। कहना, शांत हो जाओ। फिर जब मन-काया और | आयी यह बात, या नहीं आयी। शायद ही आयी हो! क्योंकि वचन, तीनों शांत होने लगें-पहले काया, फिर वचन, फिर राजनीतिज्ञ को धर्म की बात शायद ही समझ में आये। ही है। 295 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340146
Book TitleJinsutra Lecture 46 Twara Se Jina Dhyan Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size35 MB
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