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________________ 6 गुरु है मन का मीत आईने से बिगड़ के बैठ गये अगर शरीर बीमार हो, तो मन की तरफ यात्रा नहीं हो सकती। जिनकी सूरत जिन्हें दिखायी गयी | जैसे कोई आदमी बीमार है, क्या वीणा बजाये! कैसे गीत तो गुरु का काम तो बड़ा कठिन है। उसे तुम्हें तुम्हारी सूरत भी गाये? खाट से लगा है, कैसे नाचे? कैसा साहित्य का रस, दिखानी है और तुम्हें तुम्हारी सूरत से मुक्त भी करना है। तुम कैसा काव्य, कैसी चित्रकला, कैसी मूर्ति! अभी शरीर रुग्ण है, जैसे हो वह बताना है, और तुम जैसे हो सको उस तरफ ले जाना | घावों से भरा है। तो शरीर में अटका रहता है। शरीर स्वस्थ हो है। और तुम्हारी निंदा भी न हो जाए, तुम्हारा आत्मविश्वास भी जाता है, तो आदमी मन की तरफ चलता है। तो फिर गीत भी न खो जाए, तुम्हारी प्रतिमा भी खंडित न हो जाए, बड़ा नाजुक | सुनता है, संगीत भी सुनता है। नाचता भी है, चित्र भी बनाता है, काम है। तुम्हें संभालना भी है, तुम्हें गिरने भी नहीं देना है, और | मूर्ति भी गढ़ता। बगीचा लगाता है, फूल संवारता है। सौंदर्य का तुम्हें संभालना भी ऐसे है कि तुम्हें ऐसा न लगने लगे कि कोई अनुबोध होता है। एक नया रस का संसार खुलता है। शरीर जबर्दस्ती संभाल रहा है। कहीं तुम्हें ऐसा न लगने लगे कि | स्वस्थ हो तो आदमी मन की ऊर्जा का उपयोग करना शुरू करता तुम्हारी स्वतंत्रता खोयी जा रही है, तुम गिरने की स्वतंत्रता खोये है। मन की तरंगों पर चढ़ता है। लेकिन मन अगर रुग्ण हो, तो दे रहे हो। आत्मा की तरफ नहीं जा सकता। जब मन निशल्य होता है, तो तो गुरु का काम इस जगत में सबसे नाजुक काम है। मूर्तिकार और एक नयी अंतिम यात्रा शुरू होती है-आत्मा की खोज, पत्थर की मूर्ति खोदते हैं, चित्रकार कैनवस पर चित्र बनाते हैं, परमात्मा की खोज, सत्य की खोज। शरीर, मन, दोनों संतुलन कवि शब्दों को जमाते हैं, संवारते हैं, गुरु चैतन्य की मूर्ति में हों, तो ही आत्मा की खोज हो सकती है। निखारता है-बड़ा नाजुक है। और नाजुकता यही है कि गुरु को अब मुझको करार है तो सबको करार है विपरीत काम करने पड़ते हैं। एक तरफ तम घबड़ाकर गिर ही न दिल क्या ठहर गया कि जमाना ठहर जाओ, दूसरी तरफ तुम कहीं इतने आश्वस्त भी न हो जाओ कि जैसे ही मन की उधेड़बुन ठहर जाती है, दिल ठहर जाता है, कि तुम जो हो वही रह जाओ! सारी आपा धापी, सारी दौड़-धूप, सब बंद हुई। तुम्हारे बीज को तोड़ना भी है। तुम जैसे हो उसे बदलना भी है, दिल क्या ठहर गया कि जमाना ठहर गया लेकिन तुम्हें कोई चोट न पड़े, हिंसा न हो जाए। तुम्हें कहीं ऐसा | सब ठहर जाता है, समय ठहर जाता है। उस परम ठहराव में न लगने लगे कि यह बंधन हो गया, यह परतंत्रता हो गयी, यह | ध्यान के फूल खिल सकते हैं। उस परम शांति में आदमी अपनी तो कारागृह हो गया। स्वेच्छा से, स्वतंत्रता से तुम्हारे जीवन में आखिरी मंजिल की तरफ जाता है। अनुशासन आये। यही जटिलता है। थोपा न जाए, आये। गुरु ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मों की के प्रेम में आये, गुरु की उपस्थिति में आये। गुरु के आदेश से न निर्जरा होती है। निर्जरा का फल मोक्ष है। अतः सतत ज्ञानाभ्यास आये, बस उसके उपदेश से आये। वह तम्हें आज्ञा न दे। कोई करना चाहिए।' गुरु आज्ञा नहीं देता। जो आज्ञा देते हैं वे गुरु नहीं हैं। गुरु तो णाणेण ज्झाणसिज्झी, झाणादो सव्वकम्मणिज्जरणं। सिर्फ कहता है, निवेदन करता है। सुझाव ज्यादा से ज्यादा, णिज्जरणफलं मोक्खं, णाणब्भासं तदो कुज्जा।। | आज्ञा नहीं। तम्हारी स्वतंत्रता भी बचानी है और तम्हारी सत्य की 'ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है।' ज्ञान को ठीक से समझ यात्रा को भी पूरा करना है। लेना। ज्ञान का अर्थ शास्त्र अध्ययन नहीं। वह तो महावीर लेकिन इसकी पहली शुरुआत, महावीर कहते हैं, भूलों के बहुत पहले इनकार कर चुके। ज्ञान का अर्थ सूचनाओं का समग्र स्वीकार से होती है। निशल्य हुआ व्यक्ति स्वस्थ हो | संकलन नहीं है। ज्ञान का अर्थ है, जो है उसे वैसा ही जानना। गया। उसके मानसिक रोग गये। उसकी मानसिक उपाधियां | | जैसा है वैसा ही जानना। तथ्य को तोड़ना-मरोड़ना नहीं। तथ्य गिरी। मन स्वस्थ हो, तो आत्मा की तरफ यात्रा हो। के ऊपर अपने मन को आरोपित न करना। तथ्य को विकृत न इसे हम समझें। करना। जो है, जैसा है, उसे वैसे ही जानने का नाम ज्ञान है। 253 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340144
Book TitleJinsutra Lecture 44 Guru hai Man ka Meet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size38 MB
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