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________________ - जिन सूत्र भाग : 2 सोने को भी फेंक देती है। क्योंकि इसी सोने की वजह से तो | साथ ही धर्म से भी बच जाते हैं। कूड़ा-कर्कट इकट्ठा होता है। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी; फिर दूसरा सामान्य विकल्प है तथाकथित धार्मिक आदमी वैसा नास्तिक का तर्क है। का। वह धर्म को तो पकड़ता है, लेकिन धर्म के साथ इतना नास्तिक बहुत थे भारत में जब महावीर पैदा हुए। चार्वाक की कूड़ा-कर्कट ले आता है कि उस कूड़े-कर्कट के कारण धर्म के बड़ी गहन परंपरा थी। चार्वाक शब्द ही आता है चारुवाक से। हीरे को खोजना ही मुश्किल हो जाता है। इसका अर्थ होता है, जो वचन सभी को प्रीतिकर लगते हैं। चारु महावीर जब जन्मे, दोनों विकल्प थे। एक तरफ आस्तिक वाक। जो धारणा सभी को प्रीतिकर लगती है। ईश्वर नहीं है, | था। धर्म का जाल था और उस धर्म में फंसे हुए लोग थे, जो बहुत गहरे में सभी को प्रीतिकर लगता है। क्योंकि ईश्वर नहीं है केवल पुरोहित-पंडित के हाथ में फंस गये थे। परमात्मा तक तो तम अनुभव करते हो कि तम स्वतंत्र हो। फिर तम्हारे ऊपर पहंचने का कोई उनके पास उपाय न था। पंडित ही बीच में उन्हें कोई भी नहीं है। ईश्वर नहीं है, तो फिर न कुछ पाप है, न पुण्य लूटे ले रहा था। और दूसरी तरफ नास्तिक थे, जिन्होंने पंडित को है। फिर जो मर्जी हो करो। चार्वाकों का दूसरा नाम है इनकार किया, साथ ही परमात्मा को भी फेंक दिया था। लोकायत। लोकायत का अर्थ भी होता है, जो लोक को प्रिय है। महावीर के सामने सवाल था धर्म बच जाए और अंधविश्वास. जो अधिकतम लोगों को प्रिय है। हट जाए। तो उन्होंने एक ऐसे धर्म को जन्म दिया, जिसमें तो चाहे तुम्हें ऊपर से अधिकतम लोग धार्मिक मालूम पड़ते नास्तिकता भी है और आस्तिकता भी। यह उनका अदभुत हों, लेकिन भीतर से जांचने जाओगे तो अधिकतम को तुम समन्वय था। इसलिए उन्होंने कहा, ईश्वर तो नहीं है। क्योंकि नास्तिक पाओगे। भला मंदिर-मस्जिद में मिलें वे तुम्हें, ईश्वर के साथ अंधविश्वास आने शुरू हो जाते हैं। ईश्वर किसी पूजा-प्रार्थना करते मिलें, लेकिन अंतर्तम में वे नास्तिक हैं। वे की पकड़ में आता नहीं। न समझ में आता। ईश्वर इतने दूर का | जानते हैं कि ईश्वर इत्यादि है नहीं। क्योंकि ईश्वर के होने का तारा है कि हमारी आंखें उसे देख भी नहीं पातीं। तो स्वभावतः अर्थ होता है, एक महान उत्तरदायित्व। फिर एक-एक कदम | इतने दूर की चीज को समझने के लिए बीच में दलाल खड़े करने कर रखना होगा। फिर पाप और पुण्य का विचार करना | होते हैं। यात्रा इतनी लंबी है कि बीच के पड़ाव बनाने पड़ते हैं। होगा। फिर तुम जो कर रहे हो, उसका निर्णय होने को है। वे ही पड़ाव मंदिर और मस्जिद, गुरुद्वारा बन जाते हैं। वे ही रत्ती-रत्ती का हिसाब चुकाना होगा। ईश्वर की मौजूदगी घबड़ाती | पड़ाव पंडित-पुरोहित बन जाते हैं। है। कोई भी तो नहीं चाहता कि सिर पर कोई और हो। ईश्वर के तो पुरोहित कहने लगता है, तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता, लेकिन हटते ही मनुष्य अपना खुद मुख्तार हो जाता है। सब कुछ अपने मेरा सीधा संबंध है। पुरोहित कहने लगता है, तुम फिकिर मत हाथ में आ जाता है। करो, तुम्हारे लिए मैं प्रार्थना कर दूंगा। तुम चिंता छोड़ो। यह चार्वाकों ने कहा है-ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत। अगर ऋण तुमसे न हो सकेगा। तुम बड़े असहाय, बड़े कमजोर, बड़े लेकर भी घी पीना पड़े, कोई फिकिर नहीं। ले लो ऋण। सीमित हो। तो एक व्यवसाय खड़ा होता है मनुष्य और परमात्मा देना-लेना किसको है! बचता कौन है! लौटकर आता कौन है! के बीच में। परमात्मा तो नहीं मिलता, परमात्मा के नाम पर मरने के बाद कोई हिसाब नहीं है। न कर्म का, न पाप का, न धोखाधड़ी हाथ में आती है। पुण्य का; न शुभ का, न अशुभ का। कर लो जो करना है। एक | तो महावीर ने परमात्मा को तो इनकार कर दिया। इसलिए नहीं ही खयाल रखो, भोग लो, छीन-झपट से सही, चोरी-चपाटी से कि परमात्मा नहीं है। बल्कि इसलिए कि परमात्मा के कारण ही सही, लेकिन एक ही मल्य है नास्तिक के सामने किसी भी आस्तिक आस्तिक नहीं हो पा रहा है। महावीर परम आस्तिक थे तरह भोग लो। चूस लो जीवन में जो मिला है। फिर आना नहीं | इसलिए परमात्मा को इनकार कर दिया। क्योंकि देखा, यह होगा। बचोगे भी नहीं। मिट्टी, मिट्टी में गिरेगी और मिट औषधि तो बीमारी से भी महंगी पड़ रही है। इस औषधि को लाते जायेगी। तो नास्तिक अंधविश्वास से तो बच जाते हैं, लेकिन ही चिकित्सक बीच में खड़ा हो जाता है। बीच में दुकानदार खड़ा 461 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340134
Book TitleJinsutra Lecture 34 Gyan hai Param Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size41 MB
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