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________________ webmasumaase ज्ञान है परमयोग _ 'जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्वतः भिन्न तथा कुछ फर्क नहीं पड़ता ज्ञायक-स्वरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है। पश्चिम में एक बहुत बड़ा नास्तिक हुआ-वोल्तेयर। उसने जो अप्पाणं जाणदि, असुइ-सरीरादु तच्चदो भिन्नं। जिंदगीभर ईश्वर, आत्मा, धर्म, इनका खंडन किया। फिर वह जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं / / बीमार पड़ा, हृदय का दौरा पड़ा। तब वह घबड़ा गया। तब 'आत्मा को इस शरीर से तत्वतः भिन्न और ज्ञायक-स्वरूप एकदम उसने अपनी पत्नी को कहा. अपने मित्रों को कहा कि जानता है।' जल्दी ही किसी धर्मगुरु का बुलाओ। पर उन्होंने कहा, धर्मगुरु! यह गहनतम सूत्र है ध्यान का। जिसे भी हम देखने में समर्थ हो क्या तुम भूल गये अपने सिद्धांत? उसने कहा छोड़ो सिद्धांत, जाते हैं, वह हम से भिन्न है। तुम अपने शरीर को देखने में समर्थ इधर मैं मर रहा हूं, तुम्हें सिद्धांत की पड़ी है। अभी तक तो जिंदा हो, शरीर तुमसे भिन्न है। तुम अपने विचार को देखने में समर्थ | था, तो कभी मैंने सोचा न था। लेकिन कौन जाने, यह धर्मगुरु हो, विचार तुमसे भिन्न है। तुम सिर्फ अपने साक्षीभाव को देखने | ठीक ही हों! मरते वक्त मुझे आगे का इंतजाम कर लेने दो। में समर्थ नहीं हो, इसलिए साक्षीभाव से तुम अभिन्न हो। उससे धर्मगुरु बुलाया गया। संयोग की बात वह ठीक हो गया। तुम अलग नहीं हो सकते। काटते-काटते, हटाते-हटाते जो जब वह फिर स्वस्थ हो गया, तो उसने फिर अपने पुराने राग भिन्न है उसे जानते-जानते आदमी उस अंतिम पड़ाव पर पहुंचता शुरू कर दिये। फिर नास्तिकता! फिर ईश्वर, फिर आत्मा का है, जहां केवल वही शेष रह जाता है। जिसको अपने से अलग खंडन! मित्रों ने कहा यह तुम क्या कर रहे हो? उसने कहा वह नहीं किया जा सकता, वह तुम्हारा शुद्ध ज्ञायक-स्वरूप है। उस सिर्फ मौत के भय के कारण, वह कोई असली बात न थी। वह शुद्ध में ही जीने का नाम धर्म है। और उस शुद्ध में ही ठहर जाने | तो सिर्फ भावावेश था। फिर वह अपनी बुद्धि में प्रवेश कर का नाम मोक्ष है। उस शुद्ध को जिन्होंने जान लिया, वे ही मुक्त | गया-बहुत बड़ा बुद्धिमान आदमी था। बहुत तर्कशील हैं। और महावीर कहते हैं, जिसने उस ज्ञायक-स्वरूप को जान आदमी था। तो उसने उसके लिए भी तर्क खोज लिया कि वह तो लिया, वही समस्त शास्त्रों को जानता है। उसने सब जान लिये भय के कारण जरा कंप गया था। उसको तुम कुछ गौर मत दो। करान, बाइबिल, वेद, गीता। फिर कहीं कछ और जानने की लेकिन फिर दस-पंद्रह साल बाद वह दौरा पड़ा। तब वह फिर जरूरत न रही। घबड़ाया। उसने कहा, बुलाओ धर्मगुरु को। लेकिन मित्रों ने इसे थोड़ा समझो। | कहा, अब तुम्हारे भय के कारण हम धोखे में न पड़ेंगे। कहते हैं सभी रहस्यवादियों ने महावीर, कष्ण, बद्ध, सभी | मित्र घेरा बांधकर खड़े हो गये। उन्होंने कहा, न तो हम धर्मगरु रहस्यवादियों ने-एक बात पर जोर दिया है कि शास्त्र को को भीतर आने देंगे, न तुमको बाहर जाने देंगे। अब धोखा न जानकर तुम स्वयं को न जान सकोगे, लेकिन अगर स्वयं को चलेगा। रोने लगा वोल्तेयर। छाती पीटने लगा कि यह तुम क्या जान लो तो सभी शास्त्रों को जान सकोगे। शास्त्र की तरफ से जो कर रहे हो, मैं मरा जा रहा है। इधर मौत खड़ी है, तुम्हें सिद्धांतों स्वयं को जानने चला, उसने प्रारंभ से ही गलत यात्रा शुरू कर की पड़ी है। छोड़ो मैंने क्या कहा था। मैं क्या कहता हूं उसे दी। वह शब्दों में भटक जाएगा, शब्दों के बड़े जंगल हैं। शब्दों सुनो। लेकिन मित्रों ने कहा कि अब नहीं। फिर वह ठीक नहीं का बड़ा बीहड़ जंगल है। उससे लौटना मुश्किल हो जाएगा। हुआ, मर गया। लेकिन उसकी अवस्था को हम थोड़ा सोचें। सिद्धांतों की बड़ी भीड़ है। तुम उसमें भटक जाओगे। बड़ा बुद्धि कहीं भी ले जाती नहीं। जब सब ठीक चल रहा है, तब तर्कजाल है। उससे छूटना मुश्किल हो जाएगा। फिर, शास्त्र से तो शायद तुम्हें परमात्मा की याद भी नहीं आती। तब धर्म की तुम जो भी जानोगे, वह बुद्धि से जानोगे। अनुभव से नहीं, हृदय तुम्हें याद भी नहीं आती। मंदिर के पास से तुम ऐसे गुजर जाते हो से नहीं। बुद्धि तुम्हारी भरती जाएगी, और हृदय खाली का जैसे मंदिर है ही नहीं। जब चीजें गड़बड़ हो जाती हैं, हाथ-पैर खाली रह जाएगा। तुम्हारे जीवन का संतुलन डांवांडोल हो डांवांडोल होने लगते हैं, मौत करीब आने लगती है, तब तुम्हें जाएगा। फिर तुम चाहे आस्तिक बन जाओ, चाहे नास्तिक, | धर्म की याद आती है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340134
Book TitleJinsutra Lecture 34 Gyan hai Param Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size41 MB
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