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________________ FFERH जिन सूत्र भाग: 1मिमी अंधे को अंधेरा भी दिखायी नहीं पड़ता, याद रखना! आमतौर और लगाना चाहिए था—'किंतु सम्यक दर्शन से रहित सिद्धि से लोग सोचते हैं कि अंधा तो बेचारा अंधेरे में ही जीता होगा। प्राप्त नहीं कर सकते हैं'–उसमें भी एक कोष्ठक लगा दो। इस भूल में मत पड़ना। किसी अंधे ने कभी अंधेरा नहीं देखा। 'किंतु सम्यक दर्शन से रहित भी तो (सम्यक दर्शन को प्राप्त जिसने प्रकाश ही नहीं देखा वह अंधेरा देखेगा कैसे? अंधा करके) सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं।' तब तो महावीर के अर्थ के अंधेरे में नहीं होता। अंधे को तो पता ही नहीं है कि अंधेरा जैसी सारे प्राण खो गये। फिर कहने की जरूरत क्या है? कोई चीज होती है। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। चरित्र-विहीन चरित्र पाकर सिद्धि पा लेते हैं, तो दर्शन-विहीन प्रकाश के लिए भी आंख, अंधेरे के लिए भी आंख...। दर्शन पाकर सिद्धि पा लेंगे। कहने की जरूरत क्या है? दृष्टि मौलिक है; किसी पर निर्भर नहीं-तुम्हारी है। और कहने का प्रयोजन साफ है। महावीर भेद करना चाहते हैं कि महावीर का यह बड़ा जोर है कि जो तुम्हारा है वही सत्य है; जो दर्शन को उपलब्ध व्यक्ति तो चरित्र के बिना भी मुक्ति को पा तुम्हारा नहीं उधार है, वह असत्य है। लेते हैं। लेकिन जो दर्शन को उपलब्ध नहीं है वह चरित्र पाकर चरित्र-विहीन सम्यक दृष्टि सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। तो भी मोक्ष को उपलब्ध नहीं हो सकते। महावीर यह कह रहे हैं कि चरित्र कोई मौलिक बात नहीं है, गौण यह इतना सीधा गणित की तरह, दो और दो चार जैसा साफ है। हो तो ठीक, न हो तो भी यह संभव है कि व्यक्ति मुक्ति को है। लेकिन बड़े न्यस्त स्वार्थ हैं! उपलब्ध हो जाये। लेकिन दर्शन-विहीन कभी मुक्ति को महावीर को तो दर्शन उपलब्ध हुआ। तो जिसको आत्मा मिल उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि वह मौलिक है। गयी वह छाया की फिक्र छोड़ देता है। जिसको आत्मा नहीं अब दृष्टि की इतनी महिमा और चरित्र को ऐसा कचरे में डाल मिली वह छाया की ही चिंता करता है। उसे छाया ही आत्मा देना, महावीर करेंगे—ऐसा जैन सोच ही नहीं सकते। क्योंकि जैसी मालूम पड़ती है। जिसने अपने को देख लिया, फिर वह ढाई हजार साल तक धीरे-धीरे महावीर के वचन तो कम मूल्य के दर्पण में अपनी छवि देखने के लिए थोड़े ही बहुत आतुर होता हो गये हैं; वे जो कोष्ठक लगे हैं, ज्यादा मूल्य के हो गए हैं। वह | है! जिसने अपनी आत्मा देख ली, वह दर्पण में अपनी छवि जो उनकी व्याख्याएं की गयी हैं, वे ज्यादा मूल्य की हो गयी हैं। देखने के लिए कोई चिंता नहीं करता। और अगर दर्पण खो जाये अब जैन मुनि डरे होंगे कि यह तो खतरनाक वचन है। यह तो तो वह पागल नहीं हो उठता कि अब मैं क्या करूं, अब अपने अग्नि जैसा है, जला देगा! इसमें कहीं लोग भटक न जायें। चेहरे को कैसे देखेंगा! जिसने आत्मा देख ली, वह चेहरे को कहीं लोग यह न सोचने लगें कि चरित्र का कोई मूल्य नहीं है! देखने की फिक्र छोड़ देता है। क्योंकि अगर चरित्र का कोई मूल्य नहीं तो जैन मुनि का कोई चारित्र्य तो छाया है। चारित्र्य तो दर्पण में देखा गया प्रतिबिंब मूल्य नहीं है; क्योंकि वह चरित्र के ही मूल्य पर उसका सारा है। चारित्र्य तो अपने और दूसरों के बीच संबंधों से जो दर्पण व्यवसाय है। तो यह कोष्ठक लगा देना जरूरी है। निर्मित होते हैं, उनमें देखी गयी छवि है। वह आत्मा का सीधा यह महावीर के साथ बेईमानी है। यह महावीर के साथ अनुभव नहीं है। बलात्कार है। तुम झूठ बोले-एक तरह का चरित्र निर्मित हुआ। तुम सच ___ 'चारित्र्य धारण करके सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं'-अगर बोले-दूसरे तरह का चरित्र निर्मित हुआ। लेकिन तुम किसी से ऐसा ही था तो कहने की जरूरत क्या है? जैसा जैन मुनि मानते बोले, झूठ या सच-दूसरे की जरूरत पड़ी! अकेले में तुम कैसे हैं, अगर ऐसा ही है, अगर उनका वचन ही महावीर का सच बोलोगे, कैसे झूठ बोलोगे? एकांत में बैठे पहाड़ पर तुम ठीक-ठीक अनवाद है—'चारित्र्य-विहीन सम्यक दृष्टि तो ( कैसे ईमानदार होओगे और कैसे बेईमान होओगे? कोई उपाय न चारित्र्य धारण करके) सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। अगर यही रह जायेगा। दूसरा चाहिए। महावीर को कहना हो तो कहने की जरूरत क्या है? और अगर और जिस चीज के होने में दूसरे की जरूरत पड़ती है उससे यही कहना होता तो फिर दूसरे वचन में भी उन्हें एक कोष्ठक मोक्ष न हो सकेगा; क्योंकि मोक्ष का कुल अर्थ इतना ही है: 628 Jan Edication International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340129
Book TitleJinsutra Lecture 29 Moksh ka Dwar Samyak Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size36 MB
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