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________________ हला प्रश्न : इस जगत में न पकड़ने-योग्य कुछ दिन तक गूंजते न रह सके- क्योंकि आदमी रुग्ण है, क्योंकि / है, न छोड़ने-योग्य-ऐसा आपने कहा। और आदमी बीमार है; और आदमी से कृष्ण की बांसुरी के स्वरों का मैंने तटस्थता में शांति का अनुभव भी पाया। संबंध नहीं बैठता। लेकिन एक बात पकड़ने और छोड़ने के बीच बेचैन कर आदमी दुखी है और इसलिए दुख के कारण वह जीवन के गई-वह है प्रेम-वासना। मेरे जीवन का वही एक प्रश्न है, सुख-रूप को नहीं देख पाता। वह अपने दुख को ही जीवन में समस्या है। देखता है। इसलिए जब भी कोई तुमसे कहेगा, जीवन व्यर्थ है, असार है, तुम्हें तत्क्षण बात समझ में आ जायेगी। क्योंकि तुम्हें प्रेम समस्या नहीं है बनाना चाहो तो समस्या बन सकती है। भी ऐसा ही लग रहा है। प्रेम है जीवन का समाधान। लेकिन तुम्हारे देखने में कहीं कोई जिन्हें भी जीने का ढंग न आया, वे जीवन से नाराज हो जाते भूल-चूक हो रही है। तुमने प्रेम को निष्पक्ष भाव से नहीं देखा। हैं। अपने से तो कोई यह देखने को राजी नहीं है कि मेरी शैली जिन्होंने प्रेम के विपरीत जीवन का ढांचा निर्मित किया है, या जो गलत, मेरे जीवन को पहचानने का रास्ता गलत, जीवन की तरफ जीवन-विरोधी हैं, तुमने उनकी आंख से प्रेम को देखा है। पहुंचने की मेरी व्यवस्था गलत। ऐसा तो कोई नहीं देखता; तुम्हारी आंखें किन्हीं खयालों से भरी हैं, उन खयालों के कारण क्योंकि उसमें तो फिर 'मैं' गलत हो जाऊंगा। प्रेम समस्या बन जाता है। फिर तो कोई भी चीज समस्या बनाई हम, अगर अहंकार और जीवन में चुनना हो, तो अहंकार को जा सकती है। समस्या ही बनाना हो तो फिर इस जगत में ऐसी | चुन लेते हैं, जीवन को नहीं। मैं तो गलत कैसे हो सकता हूं, कोई बात नहीं, जो समस्या न बन जाये। कोई भोजन को समस्या जीवन ही गलत होना चाहिए। मैं तो गलत कैसे हो सकता हूं, बना लेता है। कोई शरीर को समस्या बना लेता है। कोई वस्त्रों प्रेम ही गलत होना चाहिए! को समस्या बना लेता है। प्रेम को भी समस्या बनाना चाहो तो तो जब भी हमें चुनना होता है, हम 'मैं' को चुन लेते हैं कि मैं बन सकता है। यह तुम पर निर्भर है। कहीं देखने में कुछ भूल हो तो ठीक हूं ही! एक बात तो सुनिश्चित है कि मैं ठीक हूं। और रही है। | फिर भी जीवन में दुख हैं तो कहीं न कहीं गलती का सूत्रपात होता प्रेम को सदा ही तथाकथित धार्मिकों ने निंदित किया है। होगा; कहीं न कहीं भूल के बीज होंगे। तो हम चारों तरफ देखते क्योंकि जीवन के विधायक को स्वीकार करनेवाले धर्म अब तक हैं भूल के बीज खोजने को। कोई धन में देखता है; धन छोड़कर पैदा नहीं हुए; या पैदा भी हुए तो उनकी झलकें आईं और खो भाग जाता है। लोभ में नहीं देखता; धन में देख लेता है, तो धन गईं। कभी किसी कृष्ण ने बांसुरी बजाई; लेकिन वे स्वर ज्यादा को छोड़कर भाग जाता है। अपने भीतर नहीं देखता, तृष्णा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340122
Book TitleJinsutra Lecture 22 Parmatma ke Mandir ka Dwar Prem
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size40 MB
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