________________ परमात्मा के मंदिर का द्वार : प्रेम सोता, बल्कि घुर्राता भी। तो उससे और चर्च के लोगों को भी | ध्यान और होश भी पकड़ता है। और यह संसार... अड़चन होती। उससे कुछ कहा भी नहीं जा सकता था, क्योंकि उफ...कब तक चलेगा? वह करोड़पति था और उसके दान पर चर्च चलता था। उसे यह भी नहीं बताया जा सकता कि तुम घुर्राते हो। 'संन्यास के शुरू के कुछ साल इस भ्रम में जीती रही कि मैं तो पादरी ने एक तरकीब खोज ली। उसके साथ एक छोटा संन्यासिनी हूं। वे बड़े सुख और आनंद के दिन थे।' बच्चा भी आता था, उसका वह नाती-पोता। उसने छोटे बच्चे भ्रम के दिन सदा ही सुख और आनंद के दिन होते हैं। लेकिन को एक दिन बुलाया और कहा कि देख तू अपने दादा को जब वे भ्रम के साथ एक ही खतरा है कि वह सदा नहीं चल सकता; वह घुर्राने लगें, हिला दिया कर। मैं तुझे चार आने दिया करूंगा एक दिन टूटता ही है। और जब टूटता है तो पीड़ा होती है। रोज। उसने कहा, ठीक! तो वह बच्चा, जब भी उसका दादा लेकिन उसका टूट जाना शुभ है। और अब जब मैं कह रहा हूं घुर्राने लगता, उसको तो बच्चे को कोई मतलब भी नहीं था कि संन्यास केवल लेने की बात नहीं है...लेने से तो शुरुआत प्रवचन से, वह अपने दादा ही पर नजर रखता, उनको हिला होती है, अंत नहीं। संन्यासी बनने का जब तुम निर्णय करते हो, देता। ऐसा दो-तीन दिन तो चला, लेकिन चौथे दिन देखा कि संकल्प करते हो, समर्पण करते हो, तो वह तो यात्रा का पहला बच्चे ने हिलाया नहीं। तो, पादरी ने उसे बुलाया कि क्यों, क्या कदम है। वहीं बैठकर प्रसन्न मत होते रहना। नहीं तो मंजिल हुआ? उसने कहा, मेरे दादा ने कहा कि देख, अगर तू मुझे नहीं कभी घर न आयेगी; तुम कभी मंजिल तक न पहंचोगे। उचित है हिलायेगा तो मैं एक रुपया...। अब आप सोच लो उसने कहा, कि पहला कदम भी उठाया। यह भी सौभाग्य था। इसके लिए रुपया मिल रहा है! गुनगुनाना, गीत गाना, नाच लेना, प्रसन्न होना; लेकिन यात्रा अगर पहली, ऐसी दशा हो तो कोई जरूरत नहीं है। कोई जारी रखनी है। आगे जाना है। रोज आगे जाना है। और जितने प्रयोजन नहीं है। जाना क्यों ऐसी जगह जहां नींद आती हो? घर तुम आगे जाने लगोगे, उतने मैं तुम्हें और आगे की यात्रा के इशारे ही सोया जा सकता है, सुगमता से, सुविधा से। यहां बैठकर देने लगूंगा। सख्त पत्थर पर, नींद भी मुश्किल होती होगी। तुम तो कष्ट तो पहले तुमसे कहता हूं, संन्यास सिर्फ एक भाव-भंगिमा है। दोगे, पाप मुझको भी लगेगा। वह तो तुम्हें फुसलाने के लिए। वह तो तुम्हें राजी कर लेने के अगर दूसरी तरह की नींद हो तो फिर कोई फिक्र नहीं। फिर लिए। तुमसे कहता हूं, यहीं पास रहा, दो कदम जाना है। जब अपने को जगाने की कोशिश करना। अगर दूसरी तरह की नींद | तुम दो कदम उठा लेते हो, तब मैं कहता हूं कि अब दो कदम हो कि मन की पुरानी आदत के कारण आ जाती हो, तो मन की और। ऐसे दो-दो कदम तम्हें बढ़ाकर हजारों कदम उठवाये जा आदतें तो तोड़नी हैं, उनसे तो संघर्ष करना होगा। और जब सकते हैं। अगर मैं तुमसे कहूं हजार कदम पहले से, तो शायद पहली और दूसरी तरह की नींद विदा हो जायेगी तो तीसरी तरह तुम पहला कदम भी न उठाओ। की नींद की संभावना शुरू होती है। और जब तीसरी आ जाये तो तुमने हिम्मत इतनी खो दी है, आत्मविश्वास इतना खो दिया डरना मत; फिर उसमें लीन होना, डूबना। है। तुम बड़ी क्षुद्र बातों से प्रभावित होते हो। हजार कदम, तो शायद हजार कदम की बात रुकावट ही बन जाये। इसलिए मैंने आखिरी प्रश्न H संन्यास के शुरू के कुछ साल इस भ्रम में संन्यास को इतना सरल बना दिया है जितना सरल हो सकता है। जीती रही कि मैं संन्यासिनी हूं। वे बड़े सुख और आनंद के दिन सिर्फ संन्यास लेने की आकांक्षा को मैं कहता हूं काफी है, बस, थे। किंतु अब जो आप संन्यास के फूल की बात करते हैं तो मैं | और कोई पात्रता नहीं। लेकिन एक बार तुम संन्यासी होने का अपने को बहुत अयोग्य पाती हूं। जमीन से पैर उखड़ गये, पहला कदम उठाये, तो यात्रा शुरू हुई। फिर मैं पात्रता की बात लेकिन पंख अभी तक नहीं उगे। यह कैसी अवस्था है कि एक | भी करूंगा। फिर कैसे जीवन के फूल खिलें, उनकी दिशा में तुम्हें ओर कीर्तन, नाच और भक्ति में लीन होती हूं, तो दूसरी ओर संलग्न भी करूंगा। और एक बार तुम मेरे साथ आ गये, चल 487 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org