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________________ पलकन पग पोंछ आज पिया के बचे-उतनी भी चाह की रेखा न रह जाये भीतर। परिपूर्ण | भीतर के बीज फूटने लगें; जिस भाषा के संपर्क में तुम्हारा अचाह में खड़े हो जाओ। जरा भी कंपन न रह जाये चाह का, व्यक्तित्व निखार लेने लगे; रस जगे; गीत जगे; नृत्य उठे-तो वासना का। उसी घड़ी मिलन! फिर समझना कि हृदय साफ-साफ इशारा कर रहा है किस तरफ प्रेमी कहता है, उसकी चाह में ऐसे डूब जाओ कि तुम न बचो; चलो। फिर और सारी चिंताएं छोड़ देना-किस घर में पैदा हुए, तुम्हारी सारी जीवन-ऊर्जा बस उसकी चाहत, उसका प्रेम बन | किस धर्म में पैदा हुए, कौन-सा सिखावन, कौन-सी शिक्षा दी जाये। उसी घड़ी मिलन! गई, कौन-सा शास्त्र पकड़ाया गया, फिर सब गौण है। हृदय से दोनों तरफ से मिलन हुआ है। दोनों में कौन ठीक और गलत, | परमात्मा ने बोल दिया कि तुम्हारे लिए जाने का रास्ता कौन है। इस तरह कहने की बात ही नासमझी है। इतना ही देख लेना, लेकिन ऐसा सभी को न होगा। तुम्हारा हृदय किसके साथ खिलता है! यहां कुछ हैं जिनको प्रेम की बात सुनकर बेचैनी शुरू हो जाती तन से तो सब भांति विलग तुम है, घबड़ाहट शुरू हो जाती है। विराग की बात सुनकर वह शांत लेकिन मन से दूर नहीं हो बैठ जाते हैं, कि अब चलो ठीक बात हुई। वह भी गलत नहीं जुड़े न पंडित, सजी न वेदी हैं। उनको जो रुचता है, उनको जो पचता है। वे शायद जीवन में वचन हुए न मंत्र उचारे काफी जले हैं। और जैसा दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर जनम-जनम को किंतु वधू यह पीने लगता है; प्रेम ने शायद उन्हें काफी जलाया है। यद्यपि जो हाथ बिकी बेमोल तुम्हारे प्रेम उन्होंने अब तक जाना था, वह बिलकुल ही क्षुद्र था, व्यर्थ झूठे-सच्चे, कच्चे-पक्के था, नाममात्र को था। लेकिन उसने इतना जला दिया है कि अब रिश्ते जितने दुनियाभर के तो वह परमात्मा की भक्ति की बात या प्रेम की बात सुनकर भी सबसे तुम मुक्त, प्रेम चौंक जाते हैं। वे छाछ को भी फूंक-फूंककर पीते हैं। मगर के वृंदावन से दूर नहीं हो। ठीक, अगर विराग से उनके हृदय का भाव खुलता है, शांति तन से तो सब भांति विलग तुम मिलती है और एक सुख की दशा पैदा होती है, तो वही ठीक। लेकिन मन से दूर नहीं हो। उसी से वे चलें। और सब नाते-रिश्ते होंगे संसार के, लेकिन भक्त कहता है, और जिस बात पर मैं जोर देना चाहता हूं, वह यह कि कभी प्रेम का नाता संसार का नहीं है। प्रेम तो वृंदावन है। वह कोई भूलकर भी किसी को तुम अपनी भांति चलाने की चेष्टा मत नाता नहीं है। वह कोई बनने मिटनेवाली बात नहीं है। वह कोई करना। यह चेष्टा हम सबके मन में पैदा होती है। यह हमारे संबंध नहीं है। वह तो एक आनंद की, अहोभाव की दशा है। अहंकार का बड़ा गहरा हिस्सा है। हम दूसरे को अपनी प्रतिछवि वृंदावन है। में बनाना चाहते हैं। बाप अपने बेटे को ढालना चाहता है ठीक झूठे-सच्चे, कच्चे-पक्के अपने जैसा। मां अपनी बेटी को दालना चाहती है ठीक अपने रिश्ते जितने दुनियाभर के जैसी। मित्र मित्र को ढालने में लग जाता है। हम सब इस चेष्टा सबसे तुम मुक्त, प्रेम में होते हैं कि अगर हमारा बस चले तो सारी दुनिया को हम के वृंदावन से दूर नहीं हो।। अपनी प्रतिछवि में ढाल दें। इससे अहंकार को बड़ी तृप्ति और सब होगा बाधा! प्रेम-और बाधा! भक्त को बाधा | मिलती है। इससे मैं तो हो जाता हूं आदर्श; और सभी हो जाते हैं नहीं दिखाई पड़ती। भक्त तो प्रेम से ही उसके पास पहुंचता है। मेरी छायाएं। इससे मैं तो हो जाता हूं सभी जीवन का मापदंड। प्रेम में डूबकर ही उसमें डूबता है। | इस भ्रांति से थोड़े सजग होना। ये विरागी की और प्रेमी की अलग-अलग भाषाएं हैं। इनमें जो तुम्हें अपना सत्य खोजना है। और सभी सत्य निजी सत्य हैं। भाषा तुम्हारे हृदय में रम जाये; जिस भाषा की वर्षा में तुम्हारे | दूसरे पर थोपना नहीं है। तो न तो थोपना और न किसी को थोपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340120
Book TitleJinsutra Lecture 20 Palkan Pag Ponchu Aaj Piya ke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size33 MB
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