________________ संकल्प की अंतिम निष्पत्तिः समर्पण तुमने खयाल किया, इस वैपरीत्य में ही तुम्हारी गति है। अगर उलझाव के मूल आधार को हम कर्म कहते हैं। कर्म का अर्थ है : दोनों पैर एक साथ उठा लो; गिरोगे, बुरी तरह गिरोगे, हाथ-पैर जो किया। और हम कहते हैं, कर्म से कैसे छुटकारा हो? तोड़ लोगे। फिर कभी चल न पाओगे। अगर दोनों पैर जमाकर लोग मुझसे पूछते भी हैं कभी-कभी आकर, कर्म से कैसे खड़े हो जाओ तो भी न चल पाओगे। चलना हो तो एक पैर छुटकारा हो? लेकिन मुझे लगता है, उन्हें ठीक याद नहीं रहा कि समर्पण का, एक पैर संकल्प का। पक्षी उड़ता है, दो पंख कर्म का अर्थ क्या होता है—करने से कैसे छुटकारा हो? चाहिए—दोनों अलग-अलग दिशाओं में फैले हुए। एक ही अकर्ता-भाव का कैसे जन्म हो? कब ऐसी घड़ी आयेगी जब मैं पंख से तो पक्षी डूब जायेगा। सिर्फ हो सकू और करने की कोई रेखा न बचे? एक फकीर, सूफी फकीर को उसके शिष्य ने पूछा कि क्या करने को कुछ भी न रहे, होना परिपूर्ण हो जाये-उसको हम अकेले संकल्प से पहुंचना न हो सकेगा या अकेले समर्पण मोक्ष कहते हैं। मोक्ष का अर्थ है : जहां तुम हो, विश्व के साथ से?' वह फकीर नदी के किनारे खड़ा था। वे नदी के पार जाने ऐसी संगति में, विश्व के साथ ऐसे तारतम्य में, विश्व के साथ की तैयारी कर रहे थे। उस फकीर ने कहा, आओ रास्ते में उत्तर दे | ऐसे संगीत में लयबद्ध; कि तुम कुछ भी नहीं करते, विश्व ही दंगा। नाव में दोनों बैठ गये। साधारणतः तो शिष्य ही नाव को | करता है; तुम उसके साथ बहते हो। चलाता था, लेकिन उस दिन गुरु ने कहा, मैं ही नाव चलाता हूं। संकल्प का भी अंतिम परिणाम समर्पण है; और समर्पण की उसने एक पतवार से नाव खेनी शुरू कर दी। अब नाव दो | भी शुरुआत, प्रथम चरण संकल्प है। इसलिए मैं तुमसे कहूंगा, पतवार से चलती है। एक पतवार से तो नाव गोल-गोल घूमने | तुम अभी संकल्प की ही चिंता कर लो। लगी, वर्तुलाकार चक्कर मारने लगी। उसका शिष्य हंसने लगा। उसने कहा, 'आप क्या मजाक कर रहे हैं? आपको दूसरा प्रश्न: आपका कहना है कि प्यास है तो जल भी होगा मालूम नहीं चलाना, मुझे दें। कहीं एक पतवार से नाव चली ही। यही नहीं, प्यास इसलिए है कि कहीं जल है। और आपने है? ऐसे तो हम यहीं चक्कर खाते रहेंगे।' तो यहां तक कहा कि प्यासा ही जल को नहीं खोजता, जल भी तो गुरु ने कहा, एक पतवार का नाम समर्पण है और दूसरी प्यासे को खोजता है। तब जानना चाहता हूं कि प्यासे और पतवार का नाम संकल्प। और जिसने एक से चलाने की पानी के बीच कभी-कभी इतनी दूरी मालूम देती है कि प्यासा कोशिश की, वह मुश्किल में पड़ेगा। पानी तक नहीं जा पाता; या कि प्यासा अंधा और बहरा है कि अब तुम इसे ऐसा समझो-बड़ा विरोधाभास न उसे जल दीखता है, न उसका कलकल नाद सुनाई देता है। लगेगा-समर्पण करना हो तो भी तो मूलतः संकल्प चाहिए। और कभी-कभी तो जल के बीच रहकर भी आदमी प्यासा रह संकल्पहीन कैसे समर्पण करेगा? समर्पण कोई छोटी घटना जाता है। मुझे अपने बारे में कुछ ऐसा ही लगता है। कृपापूर्वक है? किसी के चरणों में अपने को छोड़ देना, कोई छोटा निर्णय मुझे मार्ग-निर्देश दें। है? इससे बड़ा और कोई निर्णय हो सकता है? हवाओं के सहारे सूखे पत्ते की भांति अपने को छोड़ देना, इससे बड़ा कोई निश्चित ही यह खोज एकतरफा नहीं है। एकतरफा हो तो और निर्णय हो सकता है? इतना अभय, इतना गैर-डांवांडोल कभी पूरी न होगी। अगर तुम्हीं सत्य को खोज रहे हो और सत्य चित्त...तो समर्पण का भी पहला कदम तो संकल्प है। और तुम्हें न खोज रहा हो, तो मिलने की कोई संभावना नहीं है। अगर संकल्प की भी आत्यंतिक परिपूर्णता समर्पण में है। क्योंकि | सत्य भी आतुर न हो तुमसे मिल जाने को, तो सत्य फिर अपने करते-करते तो तुम थकोगे ही। कभी तो ऐसी घड़ी आनी चाहिए | को छिपाये चला जायेगा। तुम उघाड़े जाओगे, वह छिपाये जब करने से छुटकारा हो–उसी को तो हम मोक्ष कहते हैं। | जायेगा। फिर तो ऐसा हो जायेगा जैसे द्रौपदी का चीर बढ़ता करा, किया, बहुत किया, जन्मों-जन्मों तक किया, कर-करके | गया। वह उघड़ने को राजी न थी। वह उस दरबार में नग्न होने ही तो हमने अपने जीवन को उलझा लिया है। इसलिए इस | को राजी न थी। नग्न करने की चेष्टा दरबारियों की थी, दुर्योधन 257 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org|