________________ T HEIR जिंदगी नाम है रवानी का के चश्मे होते हैं। लेकिन आध्यात्मिक जीवन में एक ही तरह की कभी पता है, दांत टूट जाता है तो जीभ वहीं-वहीं जाती है। बीमारी है। भीतर की आंख की एक ही बीमारी है। वह बीमारी है जब तक था, कभी न गई। जब टूट जाता है तो वहीं-वहीं जाती कि पास जो है, वह दिखाई नहीं पड़ता है। जो दूर है, वह दिखाई हैं। खाली जगह। अभाव! पड़ता है। जो दूर है, वह दिखाई पड़ता है, इसलिए दूर की | तुम लाख सरकाते हो वहां से कि क्या सार है; पता तो चल आकांक्षा होती है। दूर के ढोल सुहावने। तो मन भटकता है। गया एक दफे कि दांत टूट गया है लेकिन फिर, भूले-चूके किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में 'नदीम' फिर तुम पाओगे, जीभ वहीं टटोल रही है। जैसे जीभ अभाव को मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू? / टटोलती है, ऐसे ही मन जो नहीं है उसको टटोलता है। जो है, पास देखने की दृष्टि का नाम धर्म है। जो मिला हुआ है, उससे उसे देखने की मन की आदत ही नहीं है। पहचान बनाने का नाम धर्म है। जिसे कभी खोया ही नहीं है | लोग मुझसे पूछते हैं कि परमात्मा दिखाई क्यों नहीं पड़ता। वह उसकी प्रत्यभिज्ञा, उसका ही नाम धर्म है। दिखाई इसीलिए नहीं पड़ता कि वह इतना ज्यादा है, इतना घना 'आखिर मैं क्या चाहता हूं? जो कुछ भी मुझे मिला है और है, सब ओर से है, बाहर-भीतर है; देखनेवाला भी वही है, मिल रहा है, वह कम नहीं है।' | दिखाई पड़नेवाला भी वही है-इसीलिए चूके जा रहे हैं। लेकिन कम तुम्हें लग रहा है। कम न होगा। कम नहीं है। इसलिए थोड़े ही कि वह कहीं दूर है, बहुत दूर है। लेकिन कम तुम्हें लग रहा है। क्योंकि मन कहे जाता है और | अगर बहुत दूर होता, हम पा ही लेते उसे। चांद पर पहुंच गए, मिल सकता है, और मिल सकता है, और मिल सकता है। कितनी दूर होगा! परसों रात एक संन्यासिनी मुझसे चप्पल मांगने लगी कि जब पहला रूसी अंतरिक्ष-यात्री वापिस लौटा, तो कहते हैं आपकी चप्पल दें। वह पहले भी आयी थी, तब भी उसने खुश्चेव ने उससे पहली बात पूछी, 'ईश्वर मिला?' तो उसने चप्पल मांगी थी। मैंने उसे कुछ दिया था; क्योंकि सवाल, क्या कहा कि नहीं, कोई ईश्वर नहीं मिला, चांद बिलकुल खाली है। देता हूं, यह थोड़े ही है। मैंने दिया। उसे कुछ दिया था, मैंने तो रूस में लेनिनग्राड में उन्होंने अंतरिक्ष-यात्रा के लिए एक कहा, यह ले जा। क्योंकि चप्पल मांगने का रोग बढ़ जाये तो मैं अनुसंधानशाला बनाई है। उसके द्वार पर ये वचन लिख दिए गए मुसीबत में पड़ जाता हूं! कितनी चप्पलें दूं? और एक के पास हैं कि 'हमारे अंतरिक्ष-यात्री चांद पर पहुंच गए और उन्होंने वहां दिखती है तो दूसरा मांगने आ जाता है, तीसरा मांगने आ जाता पाया कि ईश्वर नहीं है।' है। फिर किसको मना करो। तो मैंने उसे काष्ठ की एक छोटी जिनको जमीन पर नहीं मिलता उनको चांद पर कैसे मिलेगा, डब्बी दी थी। इस बार वह फिर आई, उसने फिर मांगा कि यह भी तो थोड़ा सोचो! तुम तो तुम ही हो! देखने की नजर चप्पल। तो मैंने उससे कहा, पहले मैंने तुझे कुछ दिया था? | तुम्हारी ही है। मिलता होता तो यहां मिल जाता। उसने कहा, कुछ नहीं, एक छोटी-सी डिब्बी दी थी। अब अगर रवींद्रनाथ ने बुद्ध के संबंध में एक कविता लिखी है। कविता इसे मैं चप्पल भी दूं तो अगले साल यह आकर कहेगी, 'क्या बड़ी मधुर है। दिया था-चप्पल!' क्योंकि सवाल...। बुद्ध वापिस लौटे हैं, बारह वर्षों के बाद। यशोधरा ने उनसे मैं तम्हारे हाथ में खाली हाथ दं, तो भी कुछ दे रहा हूं। देखने पूछा है कि मैं तुमसे एक ही प्रश्न पूछती हूं, इस एक प्रश्न पूछने की आंख चाहिए। और ऐसे मैं उठकर तुम्हारे घर भी चला के लिए जीती रही हूं, कि तुम्हें जो वहां मिला, वह यहां नहीं मिल आऊं, तो भी तुम कहोगे, 'यह और एक मुसीबत कहां से घर सकता था? जो तुम्हें जंगल में जाकर मिला, वह घर में नहीं आ गई! अब इनकी कौन साज-सम्हाल करे।' मिल सकता था? बस एक ही प्रश्न मुझे पूछना है। दृष्टि की बात है। बहुत मिल रहा है, मगर तुम्हारे पास जो मन बुद्ध को कभी किसी प्रश्न के उत्तर में ऐसा स्तब्ध नहीं रहते है, वह उसे देख ही नहीं पाता, जो है। मन की आदत अभाव को देखा गया, जैसे बुद्ध स्तब्ध खड़े रह गए। यह तो वे भी न कह देखने की है। सकेंगे कि यहां नहीं मिल सकता था। नजर की बात थी। अब 219 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org