________________ जिन सूत्र भाग : 1 है, अभ्यास से नहीं।' आदमियों से थोड़े ही बंधना है-सत्य की खोज करनी है! समझ अभ्यास बन गई। फिर चूक हो गई। तो 'जिन' तो खो जहां से जितना इशारा मिल जाये, जीवंत, उतना ले लेना और गये, जैन हैं। आगे बढ़ते जाना। एक दिन ऐसी घड़ी भी आ जायेगी कि तुम और ऐसा ही सभी धर्मों के साथ हुआ है। ऐसा ही मैं जो तुमसे अपना भी प्रकाश पैदा कर लोगे। तब फिर किसी गुरु की कोई कह रहा हूं, मेरे साथ होगा। यह प्रकृति का नियम है। इसलिए जरूरत नहीं रह जाती। इस पर नाराज मत होना। जब तुम्हें समझ में आ जाये तो तुम खिसक जाना इसके घेरे के बाहर, बस। इस पर नाराज होने जैसा आखिरी प्रश्न : किसी सुंदर युवती को देखकर जाने क्यों मन कुछ नहीं है। ऐसा सदा होगा। आखिर मैं अपने शब्दों का अर्थ उसकी ओर आकर्षित हो जाता है, आंखें उसे निहारने लगती करने कितनी देर बैठा रहूंगा? एक न एक दिन तुम मेरे शब्दों का हैं! मेरी उम्र पचास हो गई है, फिर भी ऐसा क्यों होता है? क्या अर्थ करने के मालिक हो जाओगे। फिर मैं कुछ न कर सकूँगा। यह वासना है, या प्रेम, या सुंदरता की स्तुति? कृपया मेरा तुम जो अर्थ निकालोगे, तुम्हारी मौज। मार्ग-निर्देश करें। इसलिए तो इतने धर्मों के संप्रदाय पैदा होते हैं। अब महावीर के भी संप्रदाय हो गये। छोटी-सी संख्या है जैनों की; उसमें भी ऐसा होता है निरंतर; क्योंकि जब दिन थे तब दबा लिया। तो दिगंबर हैं, श्वेतांबर हैं; फिर श्वेतांबरों में भी स्थानकवासी हैं, रोग बार-बार उभरेगा। जब जवान थे, तब ऐसी किताबें पढ़ते और तेरापंथी हैं; और एक गच्छ, दूसरा गच्छ। फिर दिगंबरों में रहे जिनमें लिखा है : ब्रह्मचर्य ही जीवन है। तब दबा लिया। भी तारणपंथी हैं। और छोटे-छोटे पंथ! और उनके झगड़े क्या जवानी के साथ एक खूबी है कि जवानी के पास ताकत हैं-बड़े छोटे-छोटे! हंसने जैसे! कुछ मुद्दा नहीं है उनमें। है—दबाने की भी ताकत है। वही ताकत भोग बनती है, वही लेकिन सवाल यह नहीं है। सवाल यह है कि जब सदगुरु जा | ताकत दमन बन जाती है। लेकिन जवान दबा सकता है। चुका तो अनुयायी अपने-अपने तरह से अर्थ करेंगे। अर्थों में मेरे अनुभव में अकसर ऐसी घटना घटती रही है, लोग आते भेद हो जायेंगे। भेदों के माननेवाले अलग-अलग हो जायेंगे, रहे हैं, कि चालीस और पैंतालीस साल के बाद बड़ी मुश्किल संप्रदायों में टूट जायेंगे। यह भेद कुछ महावीर के वचनों में नहीं खड़ी होती है, जिन्होंने भी दबाया। क्योंकि चालीस-पैंतालीस है। यह भेद अर्थ करनेवालों की व्याख्या में है। सब व्याख्याएं साल के बाद, वह ऊर्जा जो दबाने की थी वह भी क्षीण हो जाती तुम्हारी होंगी। है। तो वह जो दबाई गई वासनाएं थीं, वे उभरकर आती हैं। और तो क्या उपाय है? जब बे-समय आती हैं तो और भी बेहूदी हो जाती हैं। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि अगर तुम्हें कोई जीवित गुरु जवान स्त्रियों के पीछे भागता फिरे, कुछ भी गलत नहीं है; मिल सके, तो खोज लेना; अगर न मिल सके तो मजबूरी में स्वाभाविक है; होना था, वही हो रहा है। बच्चे तितलियों के शास्त्र में उतरना। क्योंकि शास्त्र में तुम अकेले छूट जाओगे। पीछे दौड़ते फिरें, ठीक है। बूढ़े दौड़ने लगें तो फिर जरा रोग तुम्ही अर्थ करोगे, तुम्हीं पढ़ोगे। कौन निर्णय देगा कि तुमने जो मालूम होता है। लेकिन रोग तुम्हारे कारण नहीं है, तुम्हारे पढ़ा, ठीक पढ़ा? कि तुमने जो अर्थ किया वह ठीक किया? तथाकथित साधुओं के कारण है-जिनने तुम्हें जीवन को बहुत बेईमानी की संभावना पैदा हो जाती है, जब तुम अकेले छूट सरलता से जीने की सुविधा नहीं दी है। बचपन से ही जहर डाला जाते हो। तुम बेईमान हो। अपनी इस बेईमानी के प्रति सावचेत | गया है : कामवासना पाप है! तो कामवासना को कभी पूरे रहना। कहीं ऐसे व्यक्ति को खोजो, जो तुमसे चार कदम भी प्रफुल्ल मन से स्वीकार नहीं किया। भोगा भी, तो भी अपने को आगे हो तो भी चलेगा। कम से कम चार कदम तो तुम सुरक्षा से खींचे रखा। भोगा भी, तो कलुषित मन से, अपराधी भाव से; प्रकाश में चल सकोगे! फिर चार कदम के बाद वह काम का न यह मन में बना ही रहा कि पाप कर रहे हैं। संभोग में भी उतरे तो रह जाये, किसी और को खोज लेना। जानकर कि नर्क का इंतजाम कर रहे हैं। 176/ नायिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |