SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परम औषधि : साक्षी-भाव, उस आदमी ने कहा कि यह कुछ बदला नहीं है। वह थोड़ी देर चला जाता है। अनासक्त व्यक्ति का संसार इसी क्षण टूटने चुप रहा। लगता है, बिखरने लगता है जैसे किसी ने भूमि ही खींच ली, उसने फिर पूछा कि 'महाराज! मैं भूल गया। आपका नाम | क्या है ?' उन्होंने डंडा उठा लिया। कहा, 'तू होश में है? कह | 'अपने राग-द्वेषात्मक संकल्प ही सब दोषों के मूल हैं।' दिया एक दफे कि मेरा नाम शांतिनाथ है।' वह आदमी थोड़ी देर जो इस प्रकार के चिंतन में उद्यत होता है तथा इंद्रिय-विषय फिर चुप रहा। उसने कहा, 'महाराज!' वह महाराज ही कह दोषों के मूल नहीं हैं, इस प्रकार का संकल्प करता है-उसके पाया था कि उन्होंने डंडा उस के सिर पर लगा दिया। उन्होंने कहा मन में समता उत्पन्न होती है। और उससे उसकी काम-गुणों में कि कह तो चुका इतनी बार! बुद्धि है कि मूढ़ है बिलकुल? होनेवाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती है।' | 'शांतिनाथ' मेरा नाम है। एक और महत्वपूर्ण बात महावीर इस सूत्र में कहते हैं। वे उसने कहा कि महाराज! लेकिन शांति कहीं पता नहीं चलती। कहते हैं, कामवासना के विषय कारण नहीं हैं। धन कारण नहीं है मैं तो वही रूप देख रहा हूं, जिससे बचपन से परिचित हूं, कहीं धनासक्ति का। धन पड़ा रहे तुम्हारे चारों तरफ, आसक्ति न हो कोई फर्क नहीं दिखाई पड़ता। ऊपर के आवरण बदल गये, तो धन मिट्टी है। मिट्टी में भी आसक्ति लग जाये, तो मिट्टी धन भीतर की अंतरात्मा वही है। | है। धन तुम्हारी आसक्ति से निर्मित होता है। तुम महल में रहो, विरक्ति ओढ़ना मत! विरक्ति कोई वस्त्र नहीं है, आवरण नहीं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। महल किसी को नहीं बांधता है। है कि तुम ओढ़ लो; भीतर तुम वही रहो और ऊपर से वस्त्र तुम झोपड़े में रहो और तुम्हारी आसक्ति गहन हो झोपड़े में तो बदल लो। विरक्ति तो भीतर की भाव-दशा है। धीरे-धीरे झोपड़ा ही बांध लेगा। एक छोटी-सी लंगोटी बांध ले सकती है, सम्मान करना। एक-एक उस घड़ी का जिससे विराग आता हो, और एक बड़ा साम्राज्य भी न बांधे। उसका सम्मान करना। एक-एक इंच विराग की भूमि पर अपने सूत्र है : 'अपने राग-द्वेषात्मक संकल्प ही सब दोषों के मूल को जमाना, चलाना। धीरे-धीरे संसार का बंधन छूट जाता है। हैं।' तुम्हारे भीतर ही हैं सारे मूल। विषय भोगों के मूल नहीं हैं। क्योंकि बंधन राग के कारण है। जब विरक्ति आती है, छूट जाता इंद्रिय-विषय-भोग दोषों के मूल नहीं हैं। जो इस प्रकार का है। गांठ जैसे बंधी है, जब उससे उलटा करने लगते हो, गांठ संकल्प करता है, उसके मन में समता उत्पन्न होती है।' खुल जाती है। जैसे-जैसे तुम जानोगे और इस धारणा में गहरे जमोगे, जड़ें 'और आसक्त व्यक्ति का संसार अनंत होता चला जाता फैलाओगे कि वस्तुएं नहीं हैं, बाहर कुछ भी नहीं है जो मुझे है।' आसक्त व्यक्ति का संसार अनंत होता चला जाता है, बांधता है—मैंने ही बंधना चाहा है; मेरे बंधने की चाह ही मुझे क्योंकि एक वासना दस वासनाओं को जन्म देती है। वासना बांधती है, मेरे भीतर ही मूल है। फिर बाहर के संसार को संतति-नियमन में भरोसा नहीं रखती। वासना की बड़ी संतान छोड़कर भाग जाने का बड़ा सवाल नहीं है। अगर कोई भाग भी होती है। एक वासना दस को जन्मा देती है। दस वासनायें सौ जाये तो वह केवल प्रशिक्षण है। को जन्मा देती हैं- ऐसा ही गणित फैलता चला जाता है। महावीर चले गये छोड़कर राजपाट। लेकिन बड़ी मीठी कथा तुमने कभी एक कंकड़ फेंककर देखा पानी में! एक कंकड़ | है। महावीर छोड़ना चाहते थे, मां ने कहा, 'अभी मैं न छोड़ने फेंकते हो जरा-सा, कितनी लहरें उठती हैं। एक लहर उठती है, दूंगी। जब तक मैं जिंदा हूं, मत छोड़ो!' महावीर ने फिर बात ही एक दूसरी को उठाती है, दूसरी तीसरी को उठती है। दूर न उठाई। यह बड़ी हैरानी की बात है। बुद्ध तो भाग गये एक कूल-किनारों तक सारा लहरों से भर जाता है सरोवर। एक रात, बिना किसी को कहे, पत्नी को भी न कहा कि मैं जा रहा हूं। जरा-सा कंकड़ फेंका था। एक जरा-सा कंकड़ वासना का और बारह वर्ष बाद जब आये थे तो पत्नी ने यही शिकायत की थी कि तुम्हारा सारा जीवन लहरों से विक्षुब्ध हो जाता है। तुम्हें जाना ही था, तो मैं कैसे रोक पाती? जानेवाले को कौन तो महावीर कहते हैं, आसक्त व्यक्ति का संसार अनंत होता | रोक पाया है! तुम जाना ही चाहते थे तो तुम गये ही होते, लेकिन 107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340105
Book TitleJinsutra Lecture 05 Param Aushadhi Sakshi Bhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy