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________________ धर्म : निजी और वैयक्तिक रास्ते में गड़े कांटों की शिकायत करता है? पता भी नहीं तो विज्ञान की परंपरा बनती है, ट्रेडीशन होती है। धर्म की कोई चलता। गिर पड़े, चोट खा जाये, लहूलुहान हो जाये, तो भी परंपरा नहीं होती। महावीर को ज्ञान उपलब्ध हुआ, इससे तुम पता नहीं चलता। सोचते हो, तुम्हें खोजना न पड़ेगा? बुद्ध को ज्ञान उपलब्ध हुआ, तुलसीदास, कथा कहती है, अपनी पत्नी के प्रेम में सांप को इससे क्या तुम सोचते हो बात खतम हो गई, अब तुम पढ़ लोगे पकड़कर चढ़ गये; समझे कि रस्सी है। मुर्दे की लाश का सहारा | धम्मपद ? जैसे आइंस्टीन की किताब को पढ़कर कोई सापेक्षता लेकर नदी पार उतर गये; समझे कि कोई बहती हुई लकड़ी है। का सिद्धांत समझ लेगा, क्या वैसे ही तुम कृष्ण की गीता पढ़कर उसकी दीवानगी में जो ड्बे हैं, उन्हें कुछ दुख, दुख मालूम नहीं कृष्ण के सिद्धांत को समझ लोगे, या महावार के वचन पढ़कर होता। दुख भी सुख है उसके मार्ग पर। संसार के मार्ग पर सुख महावीर को समझ लोगे? नहीं, तुम्हें फिर-फिर खोजना होगा। भी दुख हो जाते हैं। प्रभु के मार्ग पर दुख भी सुख हो जाते हैं। इसे जरा समझना। फिर-फिर खोजना होगा। जो चीज परंपरा यह आध्यात्मिक जीवन की कीमिया है. रसायन है। | बन जाती है उसको दुबारा नहीं खोजना होता; खोज ली गई, बात खतम हो गई। दूसरा प्रश्न: शास्त्रीय परंपरा से संन्यासी माया और धर्म परंपरा बनता ही नहीं। उसका प्रत्येक व्यक्ति को पुनः पुनः काम-भोग से विमुख होकर प्रभु-प्राप्ति के लिए उन्मुख होता आविष्कार करना होता है। जो बुद्ध ने खोजा वह बुद्ध का है: योग और भोग परस्पर विरोधी जाने जाते हैं। लेकिन अनुभव है। इतनी ही हमें मिल सकती है उनसे खबर कि आपके संन्यास में भोग से विरक्ति पर जोर नहीं है। अतः कृपा खोजनेवाले खोज लेते हैं-बस इतना आश्वासन। सत्य नहीं कर अपने संन्यास की धारणा को स्पष्ट करें! मिलता, सत्य का आश्वासन मिलता है। सत्य नहीं मिलता, सत्य भी संभव है, इसकी संभावना पर भरोसा मिलता है। धर्म का परंपरा से कोई संबंध नहीं है। महावीर ने खोजा, कृष्ण ने खोजा, क्राइस्ट ने खोजा, इससे हमें परंपरा यानी वह जो मर चुका। परंपरा यानी पिटी-पिटाई केवल इतनी खबर मिलती है कि हम यूं ही व्यर्थ खोज में नहीं लकीर। परंपरा यानी अतीत के चरण-चिह्न। अतीत जा चुका, लगे हैं, मिल सकता है। बस, इतनी श्रद्धा मिलती है। सत्य नहीं चरण-चिह्न रह गये हैं, राहों पर बने। मिलता, इतना आत्म-भरोसा मिलता है कि हम यूं ही अंधेरे में धर्म परंपरा नहीं है। धर्म तो नित-नूतन है—यद्यपि चिर | व्यर्थ नहीं टटोल रहे हैं, द्वार है; क्योंकि कुछ लोग निकल गये। पुरातन भी। मगर धर्म पुराना नहीं है, परंपरा नहीं है। इसलिए तो कुछ जो भीतर थे बाहर हो गये हैं, तो हम भी हो सकेंगे। लेकिन धर्म का शिक्षण नहीं हो सकता; परंपरा होती तो शिक्षण हो इससे यह मत सोचना कि उनकी किताब पढ़ ली और चल पड़े सकता था। गणित की परंपरा है। विज्ञान की परंपरा है। द्वार खोजकर और निकल पड़े बाहर। द्वार तुम्हें अपना पुनः इसलिए विज्ञान का शिक्षण हो सकता है। खोजना पड़ेगा। आइंस्टीन ने एक खोज कर ली, सापेक्षता के सिद्धांत की, तो इसलिए धर्म की कोई परंपरा नहीं बनती। और धर्म का कोई अब कोई हर आदमी को खोजने की जरूरत नहीं है: अब परंपरा शिक्षण नहीं हो सकता। धर्म क्रांति है, परंपरा बन गई। अब तो सिद्धांत एक दफा खोज लिया गया। अब ऐसा नहीं-रिवोल्यूशन! और जिस पर घटती है, बस उस पर ही थोड़े है कि हर विद्यार्थी जो पढ़ने जायेगा विश्वविद्यालय में घटती है। उसको आइंस्टीन के सिद्धांत को फिर-फिर खोजना होगा। बात जैसे समझो, तुम्हें अगर प्रेम नहीं हुआ किसी से, तो तुम क्या खतम हो गयी। खोज पूरी हो गयी। एक आदमी ने खोज दिया, | खाक जानोगे कि प्रेम क्या है! प्रेम-शास्त्र लिखे पड़े हैं, फिर परंपरा बन गयी। अब दूसरा तो सिर्फ पढ़ लेगा। आइंस्टीन पुस्तकालय अटे पड़े हैं। तुम जाकर पढ़ लो, मजनू को को जो खोजने में वर्षों लगे होंगे, वह अब किसी विद्यार्थी को क्या-क्या हुआ, लैला को क्या-क्या हुआ, शीरी-फरिहाद और पढ़ने में घंटे भी न लगेंगे। हीर-रांझा-लेकिन इससे कुछ होगा न! ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340104
Book TitleJinsutra Lecture 04 Dharm Niji aur Vaiyaktik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size39 MB
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