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________________ संन्यास प्रारंभ है, सिद्धि अंत और जब तक वह अपने को न पा लेगा, तब तक कितना ही भटके, कितनी ही यात्रा करे; यात्रा का कोई अंत नहीं है। यात्रा मिटती है अपने को पाकर / स्वयं में होकर ही यात्रा समाप्त होती है। जो स्वयं में पूरी तरह हो गया, वही सिद्ध है। महावीर इस सिद्धयोग के लिए ही इन सारे सूत्रों को दिये हैं। क्षणभर को आप भी सिद्ध होने का रस ले सकते हैं। क्षणभर को भी की। एक क्षण को पता लगता है उसका कि क्या होता होगा सिद्ध को! पर वह आनंद भी अपरिसीम है। एक क्षण को भी झलक, एक बिजली कौंध जाये भीतर, तो भी आप शुरू हो गये, चल पड़े। __ जिन्हें भी उस स्थान की तलाश हो, जिसके आगे कोई स्थान नहीं और जिन्हें भी वह धन पाना हो, जो छीना नहीं जा सकता, जो नष्ट नहीं होता, जो खोया नहीं जा सकता; जिन्हें भी वह पद पाना हो, जिस पद के बिना आप हमेशा दीन-हीन मालूम पड़ेंगे-चाहे कुछ भी पा लें, आपकी दीन-हीनता चाहे कितने ही सम्राट के वस्त्रों में छिप जाये, दीन-हीनता ही रहेगी—जिस पद को पाकर सारी दीनता मिट जाती है और वस्तुतः व्यक्ति सम्राट होता है...! स्वामी राम अपने को बादशाह कहते थे। जब वे अमरीका गये तो लोगों को बड़ी परेशानी होती थी। क्योंकि वे हमेशा अपने को कहते थे 'राम बादशाह' / उन्होंने एक किताब लिखी, जिसका नाम है 'राम बादशाह के छह हुक्मनामे-सिक्स आर्डर्स फ्राम एम्परर राम'। अमरीका का प्रेसिडेंट उनसे मिलने आया था, वह जरा बेचैन हुआ। और उसने कहा कि और सब तो ठीक है, लेकिन आप बिलकुल फकीर हैं, और अपने को बादशाह क्यों कहते हैं ? राम ने कहा, मैं इसीलिए बादशाह कहता हूं कि मुझे पाने को अब कुछ भी नहीं बचा है / जिसको पाने को कुछ बचा है, वह भिखारी है, अभी वह मांगेगा / जिसको पाने को कुछ नहीं बचा, वह सम्राट है। मुझे पाने को कुछ भी नहीं बचा है / मैं सम्राट इसलिए अपने को अब इस जगत में कुछ भी नहीं है, जो मेरी वासना का आकर्षण बन जाये। अब मैं मालिक हं ! मेरे पास कुछ भी नहीं है, लेकिन मैं हूं ! यह मेरी मालकियत है, यही मेरा जिनत्व है। महावीर कहते हैं, हर व्यक्ति जिनत्व को, सिद्धत्व को खोज रहा है। जैसे हर सरिता सागर को खोज रही है, ऐसे हर चेतना, हर आत्मा सिद्धत्व को खोज रही है। दिशाएं भटक जायें, मार्ग भूल-चूक से भरे हों, लेकिन खोज वही है। धन में भी हम वही खोज रहे हैं; पद में भी वही खोज रहे हैं; संसार में भी वही खोज रहे हैं; प्रेम में भी वही खोज रहे हैं। हम खोज रहे हैं कुछ और, पर जहां खोज रहे हैं, वहां वह मिलता नहीं, इसलिए हम पीड़ित हैं; इसलिए हम दुखी हैं। __जिस दिन हमें ठीक दिशा का बोध हो जाये और जिस दिन हम भीतर की तरफ चल पड़ें, और थोड़ी-सी भी भनक पड़ने लगे कानों में सिद्धावस्था की, थोड़ा-सा भी स्वर गूंजने लगे उस अनंत संगीत का, थोड़ी-सी सुगंध आने लगे, थोड़ा-सा प्रकाश स्पर्श करने लगे, फिर इस संसार का कोई मूल्य नहीं है। जरा-सा संस्पर्श, फिर जादू की तरह खींचने लगता है। एक बार व्यक्ति भीतर की तरफ मुड़ा कि खींच लिया जाता है। फिर केंद्र खुद ही खींच लेता है। लेकिन उस मुड़ने के लिए ध्यान के क्षण चाहिए। थोड़ी देर के लिए संसार से अपने को बंद करके भीतर की तरफ खुला छोड़ देना जरूरी है ताकि मौका मिले कि भीतर का चुंबक आपको खींच सके। थोड़ी देर के लिए भीतर के लिए अवेलेबल, उपलब्ध होना चाहिए कि आप खुले हैं और राजी हैं। __ चौबीस घण्टे में एक घण्टा निकाल लें / उस एक घण्टे में कुछ भी न करें, आंख बंद करके बैठ जायें और भीतर के अंधेरे से राजी हों। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे प्रकाश आना शुरू होगा। और धीरे-धीरे प्रतिक्रमण शुरू होगा; चेतना भीतर मुड़ने लगेगी। बाहर कोई मार्ग 569 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340054
Book TitleMahavir Vani Lecture 54 Sanyas Prarambha hai Siddhi Ant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size74 MB
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