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________________ संन्यास प्रारंभ है, सिद्धि अंत आपने देखे होंगे, अनेक इसोटेरिक, गुह्य समाजों ने सांप के प्रतीक को चुना है, जिसमें सांप अपनी पूंछ को पकड़े हुए है, वह सांप का अपनी पूंछ को पकड़ना प्रतिक्रमण है। जब चेतना अपने ही द्वारा अपने को पकड़ लेती है, और एक वर्तुल निर्मित हो जाता है, तब प्रतिक्रमण है। जब तक मैं दूसरे की तरफ ध्यान दे रहा हूं, तब तक आक्रमण जारी है / और आक्रमण जब तक जारी है, तब तक मैं अपने को व्यर्थ कर रहा हूं; व्यर्थ खो रहा हूं-तब तक मैं नष्ट हो रहा हूं। क्योंकि जितनी ऊर्जा बाहर जा रही है, वह व्यर्थ जा रही है। जब तक भीतर जोड़ न हो जाये ऊर्जा का, जब तक अंतर्संभोग न हो जाये, जब तक मैं स्वयं से भीतर न मिल जाऊं, तब तक आनंद उपलब्ध नहीं होगा। - दूसरे से मिलकर जो थोड़ा-बहुत सुख उपलब्ध हो सकता है, वह केवल राहत है। वह शक्ति का क्षीण होना है। और जब भी शक्ति भारी हो जाती है, और दूसरे के माध्यम से बाहर निकल जाती है, तो हलकापन लगता है। कभी-कभी, आपको खयाल होगा कि बुखार जब ठीक होता है, तो बड़ा हलकापन लगता है, जैसे उड़ सकते हैं। लेकिन वह हलकापन कमजोरी के कारण लगता है, शक्ति के कारण नहीं / शक्ति भीतर नहीं है, इसलिए बिलकुल हलके लगते हैं। बुखार के बाद बिलकुल हलकापन लगता है जैसे सब शांत हो गया। दूसरे से मिलकर जिस ऊर्जा का हम व्यय करते हैं, वह बुखारवाला हलकापन है, जहां एक उत्तेजना आयी और उत्तेजना विलीन हो गयी। __ अमरीका में मास्टर्स और जान्सन ने संभोग के संबंध में बड़े वैज्ञानिक अध्ययन किये हैं। और पहला अध्ययन उनका यह है कि संभोग के क्षण में दो व्यक्ति, स्त्री-पुरुष, दोनों ही बुखार की अवस्था में आ जाते हैं, फीवरिश हो जाते हैं। दोनों का शरीर उत्तप्त हो जाता है, गर्मी बढ़ जाती है, टेम्प्रेचर ज्यादा हो जाता है, श्वास जोर से चलने लगती है। शरीर का रो-रोआं बेचैन और परेशान हो जाता है। कुछ ही क्षणों में दोनों ही उत्तप्त होकर जलने लगते हैं। और जब दोनों का स्खलन हो जाता है, तो इस बुखार से छुटकारा हो जाता है। वापस लौट आते हैं। ___ यह जो बुखार से छूट जाना है, इसमें राहत मिलती है, सुख नहीं मिल सकता / दूसरे से हमारा कोई भी संबंध ज्यादा से ज्यादा रिलीफ का हो सकता है। स्वयं से संबंध आनंद का हो सकता है। ___ महावीर इस स्वयं से संबंध को कहते हैं, प्रतिक्रमण / जब चेतना अपने पर लौट आती है। जैसे ही चेतना अपने पर लौटती है, वैसे ही कर्म-मल गिर जाते हैं। क्योंकि कर्म-मल हमने इकट्ठे ही किये थे दूसरे के लिए, दूसरे से संबंधित होने के लिए। इसे हम थोड़ा समझें। हम बोलते हैं; भाषा हम सीखते हैं। लेकिन भाषा हम सीखते हैं दूसरों के लिए। भाषा का कोई उपयोग अपने लिए नहीं है। भाषा सामाजिक है, दूसरे से जुड़ने का उपाय है। अगर आप अकेले रह जायें जगत में, तो भाषा छूट जायेगी, भाषा की कोई जरूरत नहीं रह जायेगी। क्योंकि भाषा थी ही दूसरे से जुड़ने के लिए। प कार में बैठते हैं कहीं जाने के लिए अगर कहीं जाना ही न हो. तो आप कार के बाहर निकल आयेंगे। और अगर सारा जाना ही बंद हो जाये, कहीं जाने का सवाल ही न हो, कोई मंजिल ही न हो, तो कार को आप भूल ही जायेंगे। ___ आप वस्त्र पहनते हैं ताकि दूसरे को आपकी नग्नता न दिखाई पड़े। लेकिन अगर जगत में कोई भी न हो, आप घने जंगल में हों, जहां कोई भी नहीं है-आप निर्वस्त्र घूमने लगेंगे। वस्त्र की चिंता नहीं रहेगी। __ आप घर से निकलते हैं, आइने में चेहरा देखते हैं। क्योंकि कोई दूसरा आपके चेहरे में गंदगी न देख ले, कुरूपता न देख ले-अभद्र न मालूम पड़े। लेकिन आप जंगल में अकेले हों-दर्पण पड़ा-पड़ा टूट जायेगा, आप देखना बंद कर देंगे। हम जीवन में जो भी कर रहे हैं, वह दूसरे के कारण, दूसरे के लिए / महावीर कहते हैं, हमने जीवन-जीवन में, जन्मों-जन्मों में, जो 561 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340054
Book TitleMahavir Vani Lecture 54 Sanyas Prarambha hai Siddhi Ant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size74 MB
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